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संवर पदार्थ (ढाल : १) : टिप्पणी २
गुप्ति और समिति में अन्तर बताते हुए पण्डित भगवान दास लिखते हैं-“समिति सम्यक् प्रवृत्तिरूप है और गुप्ति प्रवृत्ति तथा निवृत्तिरूप। दोनों में यही अन्तर है'।"
स्वामीजी के अनुसार-मन, वचन और काय की सम्यक् प्रवृत्तिरूप गुप्ति संवर नहीं हो सकती। उनका कहना-ऐसी प्रवृत्ति शुभ योग में आती है और वह पुण्य का कारण है फिर उसे संवर कैसे कहा जा सकता है ? संवररूप गुप्ति में शुभ योगों को समाविष्ट नहीं किया जा सकता।
देवेन्द्रसूरि भी इसी का समर्थन करते हैं। उन्होंने पाप-व्यापार से मन, वचन और काया के गोपन को ही क्रमशः मनोगुप्ति आदि कहा है। उत्तराध्ययन में कहा है-'गुत्ती नियत्तणे वुत्ता, असुभत्येसुसावसो-सर्व अशुभ योगों से निवृत्ति गुप्ति है। श्री अकलङ्क भी गुप्ति का स्वरूप निवृत्तिपरक ही बतलाते हैं-'गुप्त्यादि प्रवृत्तिनिग्रहार्थ (०.६.१), 'गुप्तिर्हि निवृत्तिप्रवणा' (६.६.११)। २. पाँच समिति : सम्यक् प्रवृत्ति को समिति कहते हैं।
(४) ईर्या समिति : धर्म में प्रयत्नमान साधु का आवश्यक कार्य के लिए अथवा संयम की सिद्धि के लिए चार हाथ भूमि को देखकर अनन्यमन से धीरे-धीरे पैर रखकर विधिपूर्वक चलना ईर्यासमिति है।
(५) भाषा समिति : साधु का हित (मोक्षप्रापक), मित, असंदिग्ध और अनवद्य वचनों का बोलना भाषासमिति है।
(६) एषणा समिति : अन्न, पान, रजोहरण, पात्र, चीवर तथा अन्य धर्म-साधनों को ग्रहण करते समय साधु द्वारा उद्गगन, उत्पादम और एषणा दोषों का वर्जन करना एषणासमिति है। १. नवतत्त्वप्रकरण (आवृ० २) पृ० ११२, ११५ २. नवतत्त्वसाहित्यसंग्रह : नवतत्त्वप्रकरणम् : १६, ४१ वृत्ति :
पापव्यापारेम्यो मनोवाक्कायगोपनान्मनोवचनकायगुप्तयः । ३. (क) तत्त्वा ६.२ सर्वार्थसिद्धि :
सम्यगयनं समितिः (ख) नवतत्त्वसात्यिसंग्रह : देवगुप्त सूरि प्रणीत नवतत्त्वप्रकरण गा० १० भाष्य : सम्मं जा
उ पवित्ती। सा समिई पञ्चहा एवं। ४. (क) तत्त्वा० ६.५ भाष्य
(ख) वही : राजवार्तिक : ३ (क) तत्त्वा० ६.५ भाष्य .
(ख) वही : राजवार्तिक : ५ ६. (क) तत्त्वा० ६.५ भाष्य
(ख) वही : राजवार्तिक : ६