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वीर्य - इन आठ मदस्थानों से मत्त हो दूसरों की निन्दा और अपनी प्रशंसा करने का निग्रह मार्दव है' । पूज्यपाद के अनुसार भी अभिमान का अभाव, मान का निर्हरण मार्दव है ।
(११) उत्तम आर्जव: उमास्वाति कहते हैं-भाव विशुद्धि और अविसंवादन आर्जव के लक्षण हैं। ऋजुभाव अथवा ऋजुकर्म को आर्जव कहते हैं। आचार्य पूज्यपाद के अनुसार योगों की अवक्रता आर्जव है ।
(१२) उत्तम शौच : अलोभ । शुचिभाव या शुचिकर्म शौच है । अर्थात् भावों की विशुद्धि, कल्मषता का अभाव और धर्म के साधनों में भी आसक्ति का न होना शौच धर्म है | प्रकर्षप्राप्त लोभ की निवृत्ति शौच है ।
प्रश्न है - मनोगुप्ति और शौच में क्या अन्र है ? श्री अकलङ्कदेव कहते हैं - मनोगुप्ति में मन के परिस्पन्दन का सर्वथा निरोध किया जाता है जबकि शौच में हर वस्तु विषयक अनिष्ट विचारों की शान्ति का ही समावेश होता है। लोभ चार हैं- जीवनलोभ, आरोग्यलोभ, इन्द्रियलोभ और उपभोगलोभ । इन चारों का परिहार शौच में आता हैं ।
(१३) उत्तम सत्य : सत्यर्थ में प्रवृत्त वचन अथवा सत्पुरुषों के हित का साधक वचन सत्य कहलाता है । अनृत, परुषता, चुगली आदि दोषों से रहित वचन उत्तम सत्य है । पूज्यपाद कहते हैं भाषासमिति में मुनि हित और मित ही बोल सकता है अन्यथा वह राग और अनर्थदण्ड का दोषी होता है। परन्तु उत्तम सत्य में धर्मवृद्धि के निमित्त बहु बोलना भी आ जाता है ।
१.
२.
३.
तत्त्वा० ६.६ भाष्य
४. वही : सर्वार्थसिद्धि
तत्त्वा० ६.६ भाष्य
वही : सर्वार्थसिद्धि
५.
तत्त्वा० ६.६ भाष्य
६. वही : सर्वार्थसिद्धि
७. वही : राजवार्तिक : ८
८.
नव पदार्थ
६.
वही भाष्य
वहीं: सर्वार्थसिद्धि