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नव पदार्थ
__छठे गुणस्थान में सर्व प्रत्याख्याननिष्पन्न सर्व विरति संवर होता है, पर अयोग संवर तेरहवें गुणस्थान तक नहीं होता। वह प्रत्याख्यान से नहीं; कर्मों के क्षय से उत्पन्न होता है। अतः चौदहवें गुणस्थान में होता है।
स्वामीजी के सामने वाद आया-"योग को छोड़ कर बीस आस्रवों में से उन्नीस को जीव जब कराना चाहे कर सकता है और वैसे ही जब छोड़ना चाहे छोड़ सकता है; यह अपने वश की बात है।" स्वामीजी ने उत्तर देते हुए कहा है-"जो यह कहते हैं कि उन्नीस आस्रव जब इच्छा हो छोड़े जा सकते हैं-उनसे पूछना चाहिए कि साधु छठे गुणस्थान में प्रमाद आस्रव को क्यों नहीं छोड़ता, कषाय आस्रव को क्यों नहीं छोड़ता? माया-प्रत्यया, लोभ-प्रत्यया, मान-प्रत्यया और क्रोध-प्रत्यया क्रियाओं को क्यों नहीं छोड़ता ? रागद्वेष-प्रत्यया क्रिया को क्यों नहीं छोड़ता ? तीन वेद की क्रिया को क्यों नहीं छोड़ता ? इसी तरह अनेक उदय के कर्तव्य हैं, जिनसे पाप लगते हैं, उन्हें क्यों नहीं छोड़ता ? पुनः अठारह पाप-स्थानकों के क्षयोपशम से क्षयोपशम सम्यक्त्व और क्षयोपशम चारित्र आता है। इस तरह अठारह पाप-स्थानकों के क्षयोपशम चारित्र और सम्यक्तव वाले के निरन्तर उदय में रहते हैं; जिससे उदय के कर्तव्य निरन्तर होते हैं और निरन्तर पापकर्म लगते रहते हैं। यदि योग आस्रव को वर्जित कर अन्य उन्नीस आस्रव टालने से टल सकते हों तो जीव उन आस्रवों को क्यों नहीं टालता? मिथ्यात्व आस्रव, अविरति
१. झीणी चर्चा ढाल ६ :
छठे संवर कह्या दोय, सम्यक्त ने वरती संवर होय! . व्रती संवर चारित्र संजोग रे ।।३०।। सातमा गुणठाणां सोभावै पनरै भेद संवर ना पावै। अशुभ जोग तिचं नहीं आवै रे ।।३१।। अकषाय अजोग सुहाय, वले वश करै मन वच काय । ए पांचूं संवर पावै नाहिं रे ।।३२ ।। आठमें नवमें दशमें मंत, पनरै भेद हैं तंत। पूर्व कह्या ते पांचं टलंत रे ।।३३।। ग्यारमें सौले अजोग नाहिं, बले वश करै मन वच काय। ए च्यारूँ संवर नहीं पाय रे।।३४ ।। बारमें तेरमें चवदमें सोल, चउदमें बीसूं बोल अडोल। सिद्धा मांही नहीं बीस बोल रे ।।३५ ।।