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संवर पदार्थ (ढाल : १) : टिप्पणी ४
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अयोग संवर के सम्बन्ध में श्री जयाचार्य लिखते हैं :
"छठे गुणस्थान में अठारह आस्रव होते हैं। मिथ्यात्व आस्रव और अविरति आस्रव नहीं होते। भगवती सूत्र में इस गुणस्थान में दो क्रियाएँ कही हैं-(१) माया-प्रत्यया क्रिया। यह कषाय है। (२) आरम्भ-प्रत्यया क्रिया। यह अशुभ योग है। सातवें गुणस्थान में भी पाँच आस्रव होते हैं-कषाय आस्रव, योग आस्रव, मन आस्रव, वचन आस्रव और काय आस्रव । इस गुणस्थान में माया-प्रत्यया क्रिया होती है। अशुभ योगरूप आरम्भिका क्रिया नहीं होती। आठवें, नौंवें और दसवें गुणस्थान में भी सातवें गुणस्थानवर्ती पाँचों आस्रव पाये जाते हैं। दो क्रियाएँ होती हैं-माया-प्रत्यया और साम्परायिकी । ग्यारहवें-गुणस्थान में चार आस्रव होते हैं-शुभ योग, शुभ मन, शुभ वचन और शुभ काय । बारहवें-तेरहवें गुणस्थान में भी ये चार आस्रव हैं। चौदहवें गुणस्थान में कोई आस्रव नहीं होता-अयोग संवर होता है'।"
इससे भी स्पष्ट है कि सर्व सावद्य योगों का प्रत्याख्यान छठे गुणस्थान में कर लेने पर भी योग आस्रव नहीं मिटता। वह तेरहवें गुणस्थान तक रहता है।
१. झीणी चर्चा ढा० ६ :
छठे आश्रव कह्या अठार, टलियो मिथ्यात अब्रत धार। क्रिया दोय कही जगतार रे ।।४।। मायावतिया कषाय नी तांहि, आरंभिया अशुभ जोग कहिवाय । भगवती पहिला शतक मांहि रे।।५।। सातमां गुणठाणा मांहि, पंच आश्रव भेदज पाय। कषाय जोग मन वच काय रे ।।६।। मायावतिया क्रिया तिहां होय, आरंभिया अशुभ जोग न कोय। ए पिण पाठ भगोती में जोय रे।७।। अष्टम नवमां दशमां रै मांहि, पंच आश्रव तेहिज पाय । क्रिया मायावतिया संपराय रे ।।८।। इग्यारमें है आश्रव च्यार, जोग मन वच काय उदार। अशुभ आश्रव ना परिहार रे।।६।। बारमें तेरमें पिण च्यार, जोग मन वच काय उदार। चवदमें नहीं आश्रव लिगार रे ।।१०।।