________________
संवर पदार्थ (ढाल : १) : टिप्पणी २
५२३
(५१) अज्ञान परीषह : अपने अज्ञान से खेदखिन्न न होना; जैसे–मैंने व्यर्थ ही मैथुन आदि से निवृत्ति तथा इन्द्रियों के दमन का प्रयत्न किया, जो मुझे साक्षात् धर्म और पाप का ज्ञान नहीं।
(५२) अदर्शन परीषह : जिनोपदिष्ट तत्त्वों में अश्रद्धा उत्पन्न न होने देना; जैसे-परलोक नहीं है, जिन नहीं हुए अथवा संयम-ग्रहण कर मैं छला गया आदि नहीं सोचना।
बाईस-परीषहों का वर्णन उत्तराध्ययन (अ० २), समवायाङ्ग (सम० २२) और भगवती (८.८) में मिलता है। भगवती में 'अज्ञान-परीषह' के स्थान में 'ज्ञान-परीषह' का उल्लेख है।
परीषह निर्जरा पदार्थ के अन्तर्गत आते हैं। स्वामीजी के अनुसार वे संवर के भेद नहीं हैं। वे षट् द्रव्यों में जीव और नव पदार्थों में जीव और निर्जरा के अन्तर्गत आते हैं। ६. पाँच चारित्र :
(५३) सामायिक चारित्र : सर्व सावद्य योगों का त्याग कर पाँच महाव्रतों को ग्रहण करना सामायिक चारित्र कहलाता है।
(५४) छेदोपस्थापनीय चारित्र : दीक्षा लेने के बाद विशिष्ट श्रुत का अभ्यास कर चुकने पर पुनः महाव्रतों का ग्रहण करना अथवा प्रथम दीक्षा में दोष लगने से उसका छेद कर पुनः दीक्षा लेना छेदोपस्थापनीय चारित्र है। संक्षेप में सामायिक चारित्र के सदोष अथवा निर्दोष पर्याय का छेदन कर पुनः महाव्रतों का ग्रहण करना छेदोपस्थापनीय चारित्र
(५५) परिहारविशुद्धि चारित्र : जिसमें तप विशेष द्वारा आत्म-शुद्धि की जाती है, उसे परिहारविशुद्धि चारित्र कहते हैं। विशेष तपस्या से विशुद्ध होना इस चारित्र की विशेषता
(५६) सूक्ष्मसंपराय चारित्र : जिस चारित्र में मात्र सूक्ष्मसंपराय-लोभ-कषाय का उदय होता है, उसे सूक्ष्मसम्पराय चारित्र कहते हैं।
(५७) यथाख्यात चारित्र : जिस चारित्र में कषाय के सर्वथा उपशम अथवा क्षय होने से वीतराग भाव की प्राप्ति होती है, उसे यथाख्यात चारित्र कहते हैं।
पाँचों चारित्र संवर हैं क्योंकि उनमें सर्व सावध व्यापार का प्रत्याख्यान रहता है। स्वामीजी ने भी पाँचों चारित्रों को संवर माना है।
१. बावन बोल को थोकड़ो : बोल ५०