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संवर पदार्थ (ढाल : १) : टिप्पणी २
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(२७) निर्जरा अनुप्रेक्षा : निर्जरा बंधे हुए कर्मों का परिशाटन करती है। निर्जरा की इस गुणवत्ता का पुनः पुनः चिन्तन |
(२८) लोकानुप्रेक्षा : स्थिति - उत्पत्ति - व्ययात्मक द्रव्यों से निष्पन्न, कटिस्थकर पुरुष की आकृतिवाले लोक़ के स्वरूप का पुनः पुनः चिन्तन ।
(२९) बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा : सम्यक्दर्शन - विशुद्ध बोधि का बार-बार प्राप्त करना दुर्लभ है - ऐसा पुनः पुनः चिन्तन करना ।
(३०) धर्मस्याख्याततत्त्वानुप्रेक्षा : परमर्षि भगवान अरहंतदेव ने जिसका व्याख्यान किया है वही एक ऐसा धर्म है जो जीव को इस संसार समुद्र से पार उतारनेवाला और मोक्ष को प्राप्त करानेवाला है - ऐसा पुनः पुनः चिन्तन ।
५. बाईस परीषह ।
मार्ग से च्युत न होने के लिए और कर्मों की निर्जरा के लिए जिन्हें सहन करना योग्य है, उन्हें परीषह कहते हैं । बाईस परीषहों का विवरण इस प्रकार है :
(३१) क्षुधा परीषह : क्षुधा - सहन करना; जैसे - क्षुधा से अत्यन्त पीड़ित होने पर भी प्रासुक आहारी साधु फल आदि को न छेदे और न दूसरे से छिदवाए; न स्वयं पकावे और न दूसरे से पकवाए। अकल्प्य आहार का सेवन न करे और धीर मन से संमय में विचरे ।
(३२) पिपास परीषह : तृषा सहन करना; जैसे - तृषा से अत्यन्त व्याकुल होने पर भी अकल्प्य सचित्त जल का सेवन न करे ।
( ३३ ) शीत परीषह : शीत- सहन करना; जैसे-शीत-काल में वस्त्र और स्थान के अभाव में अग्नि सेवन न करे ।
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(३४) उष्ण परीषह : तप सहन करना; जैसे - ताप से तप्त होने पर भी स्नान की इच्छा न करे, शरीर पर जल न छिड़के, पंखे से हवा न ले ।
(३५) दंशमशक परीषह : दंशमशकों के कष्ट को सहन करना; जैसे- उनके द्वारा डँसे जाने पर भी उनको किसी तरह का त्रास न दे, उनके प्राणों का विघात न करे ।
(३६) नाग्न्य परीषह : नगन्ता को सहना करना; जैसे वस्त्र जीर्ण हो जाने पर साधु यह चिन्ता न करे कि वह अचेलक हो जाएगा अथवा यह न सोचे कि अच्छा हुआ वस्त्र जीर्ण हो गए और अब नए वस्त्र से सचेलक होगा। उत्तराध्ययन में इसे अचेलक परीषह कहा है
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