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नव पदार्थ
और सावध योग के त्याग से विरति को साधे । सम्यग्दर्शन से मिथ्यात्व और मन की शुभ स्थिरता द्वारा आर्त-रौद्रध्यान को जीते'।"
(५) मोक्ष-मार्ग की आराधना में संवर उत्तम गुण-रत्न है :
मोक्ष संसारपूर्वक है। पहले संसार और फिर मोक्ष ऐसा क्रम है। पहले मोक्ष फिर संसार ऐसा नहीं । मोक्ष साध्य है। संसार मोच्य। इस संसार के प्रधान हेतु आस्रव और बन्ध हैं और मोक्ष के प्रधान हेतु संवर और निर्जरा । संवर से आस्रव-नये कर्मों के प्रवेश का निरोध होता है। निर्जरा से बंधे हुए कर्मों का परिशाट । इस तरह संवर मोक्ष-साधना में एक अनिवार्य साधन के रूप में सामने आता है। जो संवरयुक्त होता है वह मोक्ष के अमोघ साधन से युक्त है-अत्यन्त गुणवान है। सम्यक् ज्ञान-दर्शन-चारित्र को त्रि-रत्न कहा जाता है। संवर चारित्र है और इस तरह यह उत्तम गुण-रत्न है। २. संवर के भेद, उनकी संख्या-परम्पराएँ और ५७ प्रकार के संवर (दो० ४) : द्रव्य संवर और भव संवर :
संवर के ये दो भेद श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों ग्रंथों में मिलते हैं। इन भेदों की निम्न परिभाषाएँ मिलती हैं :
(१) जल मध्यगत नौका के छिद्रों का, जिन से अनवरत जल का प्रवेश होता है, . तथाविध द्रव्य से स्थगन द्रव्य संवर है। जीव-द्रोणि में कर्म-जल के आस्रव के हेतु इन्द्रियादि छिद्रों का समिति आदि से निरोध करना भाव संवर है।
१. नवतत्त्वसाहित्यसंग्रह : श्रीहेमचन्द्रसूरिकृतं सप्ततत्त्वप्रकरणम् : ११३-११७ २. तत्त्वा० १.४ सर्वार्थसिद्धि :
स च संसारपूर्वकः ३. वही :
संसारस्य प्रधानहेतुरास्रवो बन्धश्च। मोक्षस्य प्रधानहेतुः संवरो निर्जरा च ठाणाङ्ग १.१४ की टीका : अयं द्विविधो द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतो जलमध्यगतनावादेरनवरतप्रविशज्जलानां छिद्राणां तथाविधद्रव्येण स्थगनं संवरः, भातवस्तु जीवद्रोण्यामाश्रवत्कर्मजलानामिन्द्रियादिच्छिद्राणां समित्यादिना निरोधनं संवर इति