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भाव-आस्रव पदार्थ का सम्यक् बोधमात्र उपस्थित किया है। स्वामीजी के प्रतिपादन में आस्रव पदार्थ के द्रव्य और भाव भेदों का उल्लेख नहीं और न आगमों में ही इन भेदों का उल्लेख मिलता है ।
आस्रव नूतन कर्मों के ग्रहण का हेतु है और संवर उसका निरोध' । जिस परिणाम से कर्म-कारण प्राणातिपातादि का संवरण-निरोध होता है, वह संवर है ।
संवर - संख्या की परम्पराएँ :
जितने आस्रव हैं उतने ही संवर हैं। जैसे आस्रव की अन्तिम संख्या का निर्धारण असंभव है वैसे ही संवर की अन्तिम संख्या का भी । संवर की संख्या अनेक होने पर भी व्यवहारिक दृष्टि से संवर के भेदों की निश्चित संख्या का प्रतिपादन करने वाली अनेक परम्पराएँ प्राप्त हैं। उनमें से मुख्यं इस प्रकार हैं :
(१) सत्तावन संवर की परम्परा : इसके अनुसार पाँच समिति, तीन गुप्ति, दस धर्म, बारह अनुप्रेक्षा (भावना), बाईस परीषह और पाँच चारित्र - इस तरह कुल मिलाकर संवर के सत्तावन भेद होते हैं ।
(२) चार संवर की परम्परा : इस सम्परा के अनुसार (१) सम्यक्त्व संवर, (२) देशव्रत महाव्रतरूप विरति संवर, (३) कषाय संवर और (४) योगाभाव संवर-ये चार संवर हैं ।
१.
नव पदार्थ
तत्त्वा ६.१ सर्वार्थसिद्धि :
देखिए पृ० ५०७ पा० टि० २
२. ठाणाङ्ग १.१४ टीका
संक्रियते कर्मकारणं प्राणातिपातादि निरुध्यते येन परिणामेन स संवरः आश्रवनिरोध
इत्यर्थः
३. नवतत्त्वसाहित्यसंग्रह : देवेन्द्रसूरिकृत नवतत्त्वप्रकरणम् ४२ :
तत्थ परीषह समिई, गुत्ती भावण चरित्तधम्मेहिं । बावीसपणतिबारसपण दसभेएहि जहसंखं ।।
४. द्वादशानुप्रेक्षा : संवरानुप्रेक्षा ६५ :
सम्मत्तं देसवयं, महव्वयं तह जओ कसायाणं । एदे संवरणामा, जोगाभावो तहच्चेव ।।