________________
संवर पदार्थ (दाल : १)
५०१
४१. सूक्ष्मसंपराय चारित्र बालों के मोहकर्म के अनन्त प्रदेश
अन्त में उदय में रहते हैं। उनके झड़ जाने से निर्जरा होती है फिर मोहकर्म का लेशमात्र भी उदय नहीं रह जाता।
४२. इस प्रकार मोहकर्म का लेश मात्र भी उदय न रहने से . यथाख्यात चारित्र प्रकट होता है, जिससे अनन्त पर्यव होते हैं। भगवान ने इस चारित्र के पर्यव सूक्ष्मसंपराय चारित्र के
उत्कृष्ट पर्यव संख्या से अनन्त गुण कहे हैं। ४३. यथाख्यात चारित्र अर्थात् जीव का सर्वथा उज्ज्वल होना
इसका एक ही स्थानक होता है जिसके अनन्त पर्यव हैं।
यह स्थानक विशेष उत्कृष्ट है। ४४. मोहकर्म के जो अनन्त प्रदेश उदय में आते हैं, वे पुद्गल
की पर्याय हैं। इन अनन्त कर्म-प्रदेशों के अलग होने-झड़ जाने से जीव के अनन्त गुण प्रकट होते हैं। ये जीव के.
स्वाभाविक गुण हैं। ४५. जीव के इस प्रकार प्रकट हुए स्वाभाविक गुण भाव-जीव हैं __ और वन्दनीय हैं । वे गुण कर्म क्षय से उत्पन्न हुए हैं और
उन्हें भाव जीव ठीक ही कहा गया है।
अयोग संवर (गा० ४६-५४)
. ४६. सावध योग का प्रत्याख्यान पूर्वक निरोध करने से विरति
संवर होता है और निरवद्य योग के निरोध से संवर होता
है। बुद्धिमान यह अच्छी तरह पहचानें। ४७. मन-वचन-काय के निरवद्य योगों के घटने से संवर होता
है और उनके सर्वथा मिट जाने से अयोग संवर होता है। इसका विस्तार ध्यानपूर्वक सुनो।
४८. साधु जब कर्म-क्षय के हेतु उपवास, बेलादि तप करता है
तो निरवद्य योग के निरोध से उसके सहचर संवर होता