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आस्त्रव पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी २२
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(४) पण्डित, बाल और बालपण्डित :
एक बार महावीर ने गौतम को प्रश्न के उत्तर में कहा था-"गौतम ! जीव बाल भी होते हैं, पण्डित भी होते हैं और बालपण्डित भी' |"
जो सावद्य कार्यों से विरत होते हैं उन्हें पण्डित कहते हैं, जो उनसे अविरत होते हैं उन्हें बाल और जो देशतः विरत और देशतः अविरत होते हैं उन्हें बालपण्डित कहते
एक बार गौतम ने भगवान महावीर से कहा-"अन्ययूथिक ऐसा कहते यावत् प्ररूपणा करते हैं कि (महावीर के मत से) श्रमण पण्डित हैं, श्रमणोपासक बालपण्डित हैं और जिस जीव को एक भी जीव के वध की अविरति है वह एकान्त बाल नहीं कहा जा सकता। भगवन् ! ऐसा किस प्रकार से है ?"
भगवान बोले-'गौतम ! जो ऐसा कहते हैं वे मिथ्या कहते हैं। गौतम ! मैं तो ऐसा कहता यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि श्रमण पण्डित हैं, श्रमणोपासक बालपण्डित हैं और जिसने एक भी प्राणी के प्रति दण्ड का त्याग किया है वह एकांत बाल नहीं है।"
(५) जाग्रत, सुप्त और सुप्तजाग्रत :
जो उक्त पहले स्थान में होता है उसे सुप्त कहते हैं। जो दूसरे स्थान में होता है उसे जाग्रत कहते हैं। जो मिश्र स्थान में होता है उसे सुप्त-जाग्रत कहते हैं।
इस विषय में भगवान महावीर और जयन्ती का निम्न संवाद बड़ा रसप्रद
"हे भगवन् ! जीवों का सुप्त रहना अच्छा या जाग्रत रहना ?"
"हे जयन्ती ! कई जीवों का सुप्त रहना अच्छा और कई जीवों का जाग्रत रहना। जो जीव अधार्मिक, अधर्मप्रिय आदि हैं उनका सुप्त रहना ही अच्छा है। वे सोते रहते हैं तो प्राणियों को दुःख, शोक और परिताप के कारण नहीं होते। अपने और दूसरे को अधार्मिक योजनाओं में संयोजित करने वाले नहीं होते। हे जयन्ती ! जो जीव धार्मिक, धर्माचरण करने वाले आदि हैं उनका जाग्रत रहना अच्छा है। उनका जगना अदुःख और १. (क) भगवती १७.२
(ख) वही १.८ २. (क) सुयगडं २.२ : अविरइं पडुच्च बाले आहिज्जइ विरइं पडुच्च पंडिए आहिज्जइ
विरयाविरई पडुच्च बालपंडिए आहिज्जइ (ख) भगवती १.८ ३. भगवती १७.२
अहं पुण गोयमा ! एवं आइक्खामि, जाव-परूवेमि-एवं खलु समणा पंडिया, समणोवासगा बालपंडिया, जस्स णं एगपाणाए वि दंडे निक्खित्ते से णं नो एगंतबाले त्ति वत्तव्वं सिया।