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आस्त्रव पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी २२
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जो संयत, विरत और प्रतिहतप्रत्याख्यातकर्मा हैं वे धर्म में स्थित हैं। वे धर्म को ही ग्रहण कर रहते हैं। जो असंयत, अविरत और अप्रतिहतप्रत्याख्यातकर्मा हैं वे अधर्म में स्थित हैं। वे अधर्म को ही ग्रहण कर रहते हैं। जो संयतासंयत हैं वे धर्माधर्म में स्थित हैं । वे धर्म और अधर्म दोनों को ग्रहण कर रहते हैं'। (९) धर्मव्यवसायी, अधर्मव्यवसायी और धर्माधर्मव्यवसायी : ___ठाणाङ्ग में कहा है-व्यवसाय तीन कहे हैं-(१) धर्मव्यवसाय, (२) अधर्मव्यवसाय और (३) धर्माधर्मव्यवसाय'। इनके आधार से तीन प्रकार के मनुष्य होते हैं-(१) धर्मव्यवसायी (२) अधर्मव्यवसायी और (३) धर्माधर्मव्यवसायी।
__ स्वामीजी के अनुसार उक्त नौ त्रिकों का सार यह है कि संयम और विरति संवर हैं और असंयम और अविरति आस्रव । संयम और विरति प्रशस्त हैं और असंयम और अविरति अप्रशस्त। ‘स्वामीजी का यह कथन सूत्रों के अनेक स्थलों से प्रमाणित है :
(१) भगवती सूत्र में कहा है-हिंसादि अठारह पापों से जीव शीघ्र भारी होता है। उन पापों से विरत होने से जीव शीघ्र हल्कापन प्राप्त करता है। हिंसादि अठारह पापों से विरत न होने वाले का संसार बढ़ता-दीर्घ होता है। ऐसा जीव संसार में भ्रमण करता है। उनसे निवृत्त होने वालों का संसार घटता-संक्षिप्त होता है और ऐसा जीव संसार-समुद्र को उल्लंघ जाता है।
(२) निःशील, निर्गुण, निर्मर्याद, निष्प्रत्याख्यानी मनुष्य काल समय काल प्राप्त हो प्रायः नरक, तिर्यञ्च में उत्पन्न होंगे।
(३) एकांत बाल मनुष्य नैरयिक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव इन चारों की आयुष्य बांध सकता है। एकान्त पण्डित मनुष्य कदाचित् आयुष्य बांधता है और कदाचित् नहीं बांधता । जब बांधता है तब देवायुष्य बांधता है। बालपण्डित देवायुष्य का बंध करता है।
- (४) सर्व प्राणी, सर्व भूत, सर्व जीव, सर्व तत्त्वों के प्रति त्रिविधि-त्रिविध से असंयत अविरत और अप्रतिहतप्रत्याख्यात पाप कर्मा-सक्रिय, असंवृत्त, एकान्त दण्ड देनेवाला
१. भगवती १७.२ :
हंता गोयमा ! संजय-विरय० जाव-धम्माधम्मे ठिए २. ठाणाङ्ग ३.३.१८५ :
तिविहे ववसाए पं० तं० धम्मिते ववसाते अधम्मिए ववसाते धम्माधम्मिए ववसाते ३. भगवती १२.२ ४. वही ७.६ ५. वही १.८