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संवर पदार्थ (ढाल : १)
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विरति संवर
२. सर्व सावद्य योगों का पापमय प्रवृत्तियों की कोई छूट रखे
बिना जीवनपर्यन्त के लिए प्रत्याख्यान करना ‘सर्व विरति संवर' है।
अप्रमाद संवर
३. पापोदय से जीव प्रमादी होता है। जिन पापों के उदय से
प्रमाद आस्रव होता है उन्हीं पाप कर्मों के उपशम या क्षय होने से 'अप्रमाद संवर' होता है।
अकषाय संवर
४. कषाय कर्मों के उदय में होने से कषाय आस्रव होता है।
इन कर्मों के अलग होने पर 'अकषाय संवर' होता है।
अयोग संवर (गा० ५-६)
५-६. किंचित-किंचित सावद्य-निरवद्य योगों के निरोध से या
सावद्य योगों के सर्वथा निरोध से अयोग संवर नहीं होता। सर्व सावद्य योगों का त्याग करने पर “सर्व विरति संवर' होता है। निरवद्य योग अवशेष रहते हैं जिस कारण से अयोग संवर नहीं होता। यह संवर उस अवस्था में होता है जब कि मन-वचन-काय की सावद्य-निरवद्य सब प्रवृत्तियों का सर्वथा निरोध किया जाता है।
७.
प्रमाद आस्रव, कषाय आस्रव और योग आस्रव ये तीनों प्रत्याख्यान (त्याग) करने से नहीं मिटते। कर्मों के दूर होने से सहज ही अपने आप मिटते हैं। इस बात को अंतरंग में अच्छी तरह समझो।
अप्रमाद, अकषाय
और अयोग संवर प्रत्याख्यान से नहीं
होते
सम्यक्त्व संवर और सर्व विरति संवर प्रत्याख्यान से होते
८-६. सम्यक्त्व सवंर और सर्व विरति संवर प्रत्याख्यान करने से
होते हैं और अप्रमाद, अकषाय और अयोग संवर कर्म-क्षय से। शुभ ध्यान और शुभ लेश्या द्वारा कर्म-क्षय होने पर ही अप्रमाद संवर होता है; प्रत्याख्यान से नहीं । अकषाय और अयोग संवर भी इसी प्रकार कर्म-क्षय से होते हैं ।
(गा० ८-६)