________________
आस्त्रव पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी २२
मिथ्या अभिनिवेश है। संयंत, विरत आदि के संयम, विरति आदि संवर रूप होने से जीव- परिणाम हैं तो फिर असंयत, अविरत आदि के असंयम, अविरति आदि आस्रव रूप होने से जीव-परिणाम क्यों नहीं होंगे ?
४८३
अनुयोगद्वार में चार प्रकार के संयोग बतलाए हैं :
(१) द्रव्यसंयोग - छत्र के संयोग से छत्री, दण्ड के संयोग से दण्डी, गाय के संयोग से गोपाल, पशु के संयोग से पशुपति, हल के संयोग से हली, नाव के संयोग से नाविक आदि द्रव्यसंयोग हैं ।
(२) क्षेत्रसंयोग - भारत के संयोग से भारती, मगध के संयोग से मागधी आदि । (३) कालसंयोग - जैसे वर्षा के संयोग से बरसाती, वसन्त के संयोग से वासन्ती
आदि ।
(४) भावसंयोग - यह संयोग दो प्रकार का कहा गया है। प्रशस्त और अप्रशस्त । ज्ञान के संयोग से ज्ञानी, दर्शन के संयोग से दर्शनी, चारित्र से संयोग से चारित्री आदि प्रशस्त भाव संयोग हैं।
क्रोध के संयोग से क्रोधी, मान के संयोग से मानी, माया के संयोग से मायावी और लोभ के संयोग से लोभी- ये अप्रशस्त भाव संयोग हैं।
भावसंयोग से सम्बन्धित पाठ इस प्रकार है :
से किं ते संजोगेणं, संजोगेणं चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा- दव्व संजोगे, खेत्त संजोगे, काल संजोगे, भाव संजोगे
से किं तं भाव संजोगे ? भाव संजोगे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा पसत्थेय अपसत्य । से किं तं पसत्थे ? पसत्थे णाणेणं णाणी, दंसणेणं दंसणी, चरित्तेणं चरित्ती तं सत्थे । से किं तं अपसत्थे ? अपसत्थे कोहेण कोही, माणेण माणी, मायाए मायी, लोभेण लोभी से तं भाव संजोगे, से तं संजोगेणं...
उपरोक्त प्रसंग से यह स्पष्ट है कि ज्ञानी, दर्शनी, चारित्री, क्रोधी, मानी, मायावी, लोभी आदि ज्ञान, दर्शन यावत् लोभ आदि भावों के संयोग से होते हैं। ये ज्ञानादिक भाव जीव के ही हैं जिससे वह ज्ञानी आदि कहलाता है । क्रोध, मान, माया, लोभ भी यहाँ जीव के भाव कहे गये हैं। ये कषाय आस्रव के भेद हैं
इसी तरह असंयम, अविरति अप्रत्याख्यान आदि अप्रशस्त भाव जीव के ही हैं
www.w