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नव पदार्थ
भी एकान्त बाल होता है। सर्व प्राणी, सर्व भूत आदि के प्रति त्रिविध-त्रिविध से संयत, विरत और प्रत्याख्यातपापकर्मा-अक्रिय, संवृत्त और एकांत पण्डित होता है।
(५) संसारसमापन्नक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं-(१) संयत और (२) असंयत । संयत जीव दो प्रकार के हैं (१) प्रमत्त संयत और (२) अप्रमत्त संयत। अप्रमत्त संयत आत्मारंभी नहीं, परारंभी नहीं, तदुभयारंभी नहीं, पर अनारम्भी हैं।
प्रमत्त संयत शुभयोग की अपेक्षा से आत्मारंभी परारंभी नहीं, तदुभयारंभी नहीं, पर अनारंभी है। अशुभयोग की अपेक्षा से वे आत्मारंभी भी हैं, परारंभी भी हैं, तदुभयारंभी भी हैं, पर अनारंभी नहीं।
असंयत और अविरति की अपेक्षा से आत्मारंभी भी हैं, परारंभी भी हैं, तदुभयारंभी भी हैं, पर अनारम्भी नहीं।
(६) असंवृत्त अनगार, सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वात नहीं होता तथा सर्व दुःखों का अन्त नहीं करता। संवृत्त अनगार सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वात होता है तथा सर्व दुःखों का अन्त करता है।
(७) असंयत, अविरत, अप्रतिहतपापकर्मा, सक्रिय, असंवृत्त, एकान्तदण्डी, एकांत बाल और एकान्त सुप्त जीव पापकर्मों का उपार्जन करता है।
स्वामीजी कहते हैं कि संयत, विरत, प्रत्याख्यानी, पण्डित, जाग्रत, संवृत्त, धर्मी, धर्म-स्थित और धर्मव्यवसायी के संयत, विरति और प्रत्याख्यान संवर हैं। असंयत, अविरत अप्रत्याख्यानी आदि के असंयम, अविरति और अप्रत्याख्यान आस्रव हैं। संयतासंयत, विरताविरत और प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी के संयम और असंयम, विरति और अविरति तथा प्रत्याख्यान और अप्रत्याख्यान क्रमशः संवर और आस्रव हैं।
इस तरह संवर और आस्रव दोनों जीव के ही सिद्ध होते हैं। वे जीव-परिणाम हैं। वे जीव-परिणाम जो संवर को जीव मानते हुए भी आस्रव को अजीव कहते हैं उनको
१. (क) भगवती ७.२
(ख) वही ८.७ २. वही १.१ ३. वही १.१ ४. औपपातिक सू० ६४