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२०. चार संज्ञाएँ (गा० ४९ )
चेतना - ज्ञान का असातावेदनीय और मोहनीय कर्म के उदय से पैदा होने वाले विकार से मुक्त होना संज्ञा है' । आचार्य पूज्यपाद लिखते हैं- “ आहारादि विषयों की अभिलाषा को संज्ञा कहते हैं ।" संज्ञाएँ चार हैं :
(१) आहारसंज्ञा : आहार ग्रहण की अभिलाषा को आहारसंज्ञा कहते हैं । (२) भयसंज्ञा : भय मोहनीयकर्म के उदय से होनेवाला त्रासरूप परिणाम भयसंज्ञा
है ।
(३) मैथुनसंज्ञा : वेद मोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न होनेवाली मैथुन अभिलाषा मैथुनसंज्ञा है ।
(४) परिग्रहसंज्ञा : चारित्र मोहनीय के उदय से उत्पन्न परिग्रह अभिलाषा को परिग्रह संज्ञा कहते हैं ।
जीव संज्ञाओं से कर्मों को आत्म-प्रदेशों में खींचता है। इस तरह कर्म की हेतु संज्ञाएँ आस्रव हैं। संज्ञाएँ जीव-परिणाम हैं। अतः आस्रव जीव-परिणाम है- जीव है ।
आस्रव रूप संज्ञाओं को भगवान ने अवर्ण कहा है। अतः अन्य आस्रव भी अवर्ण-अरूपी ठहरते हैं।
भगवती सूत्र में दस संज्ञाएँ कही गयी हैं। एक बार गौतम ने पूछाभगवन् ! संज्ञाएँ कितनी हैं ?" भगवान महावीर ने उत्तर दिया- " संज्ञाएँ दस हैं-.
१.
२.
तत्त्वा० २.२४ सर्वार्थसिद्धि
३. देखिए पृ० ४१० टि० ३२
४. ठाणाङ्ग ४.४. ३५६ टीका :
ठाणाङ्ग ४.४.३५६ टीका :
संज्ञा - चैतन्यं, तञ्चासातवेदनीयमोहनीयकम्र्म्मो दयजन्यविकारयुक्तमाहारसंज्ञादित्वेन
व्यपदिश्यत
भयसंज्ञा - भवमोहनीयसम्पाद्यो जीवपरिणामो
५. वही :
५.
नव पदार्थ
मैथुनसंज्ञा-वेददियजनितो मैथुनाभिलाषः
६. वही :
परिग्रहसंज्ञा - चारित्रमोहोदयजनितः परिग्रहाभिलाषः
७. देखिए पृ० ४१० टि० ३२
भगवती ७.८