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जीव के प्रदेशों का स्वभाव ग्रहण करने का है। उसे मिटाने की शक्ति जीव की नहीं । "योग प्रशस्त और अप्रशस्त दो प्रकार के होते हैं। अप्रशस्त योग का संवर और प्रशस्त योगों की उदीर्णा - प्रवृत्ति मोक्ष-मार्ग में विहित है। संवर और उदीर्णा से कर्मों की निर्जरा होती है । संवर और उदीर्णा निर्जरा की करनी है। इस करनी से सहज रूप से
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पुण्य होता है अतः उसे आस्रव में डाला है। निर्जरा की करनी करते समय जीव के सर्व प्रदेशों में हलन चलन होती है। उस समय नामकर्म के उदय से पुण्य का प्रवेश होता है।"
१९. बासठ योग और सत्रह संयम ( गा० ४६-४७)
यहाँ दो बातें कही गयी हैं
नव पदार्थ
१. 'औपपातिक सूत्र' में ६२ योगों का उल्लेख है। वे सावद्य और निरवद्य दोनों प्रकार के हैं। योग जीव की क्रिया करना है। वह जीव-परिणाम है। अतः योग-आस्रव जीव है ।
२. असंयम के सत्रह भेद भी योग हैं।
असंयम के सत्रह भेदों के नाम इस प्रकार हैं :
(१) पृथ्वीकाय असंयम : पृथ्वीकाय जीव (मिट्टी, लोहा, तांबा आदि) के प्रति असंयम की वृत्ति । उनकी हिंसा का अत्याग ।
(२) अप्काय असंयम : जलकाय जीव (ओस, कुहासा आदि) की हिंसा का अत्याग अर्थात् उनके प्रति असंयम की वृत्ति ।
(३) तेजस्काय असंयम अग्निकाय जीव (अंगार, दीपशिखा आदि) की हिंसा का अत्याग या उनके प्रति असंयम की वृत्ति ।
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१. टीकम डोसी ने जवाब
२.
समवायाङ्ग ४.१७ :
(४) वायुकाय असंयम : वायुकाय जीव (धन, संवर्तक आदि) की हिंसा का अत्याग या उनके प्रति असंयम की वृत्ति ।
पुढविकायअसंजमे आउकायअसंजमे तेउकायअसंजमे वाउकायअसंजमे वणस्सइकायअसंजमे वेइंदियअसंजमे तेइंदियअसंजमे चउरिदियअसंजमे पंचिंदयअसंजमे अजीवकायअसंजमे पेहाअसंजमे उवेहाअसंजमे अवहट्टुअसंजमे अप्पमज्जणाअसंजमे मणअसंजमे वइअसंजमे कायअसंजमे ।