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कुन्दकुन्दाचार्य लिखते हैं- "जीव अध्यवसाय से पशु, नरक, देव, मनुष्य इन सभी पर्याय-भावों और अनेकविध पुण्य-पाप को करता है ।"
ध्यान के विषय में कुछ बातें नीचे दी जाती हैं :
वाचक उमास्वाति के अनुसार- एकाग्ररूप से चिन्ता का निरोध करना ध्यान है'। इसका भावार्थ है एक विषय में चित्त निरोध । आचार्य पूज्यपाद ने अपनी टीका में लिखा है- " अग्न' का अर्थ मुख है। जिसका एक अग्र है वह एकाग्र कहलाता है । नाना पदार्थों का अवलम्बन लेने से चिन्ता परिस्पन्दवती होती है। उसे अन्य अशेष मुखों से हटा कर एक अग्र अर्थात् एकमुख करना एकाग्रचिन्तानिरोध कहलाता है । यहाँ प्रश्न उठता है निरोध अभावरूप होने से क्या खर-श्रृंग की तरह ध्यान असत् नहीं होगा ? इसका समाधान इस प्रकार है- अन्य चिन्ता की निवृत्ति की अपेक्षा वह असत् है और अपने विषय की प्रवृत्ति की अपेक्षा सत् | निश्चल अग्निशिखा के समान निश्चल रूप से अवभासमान ज्ञान ही ध्यान है ।" चित्त के विक्षेप का त्याग करना ध्यान है।"
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दुःख रूप अथवा पीड़ा पहुंचाने रूप ध्यान को आर्तध्यान कहते हैं । क्रूरता रूप ध्यान रौद्रध्यान है' । अहिंसा आदि भावों से युक्त ध्यान धर्मध्यान है" । मैल दूर हुए स्वच्छ वस्त्र की तरह शुचिगुण से युक्त ध्यान को शुक्लध्यान कहते हैं ।
१.
२. तत्त्वा० ६.२७ :
समयसार : बंध अधिकार: २६८ : सव्वे करेइ जीवो अज्झवसाणेण तिरियणेरयिए । देवमणुये य सव्वे पुण्णं पापं च णेयविहं । ।
३. तत्त्वा० ६.२७ सर्वार्थसिद्धि
४.
वही ६.२१ सर्वार्थसिद्धि : चित्तविक्षेपत्यागो ध्यानम्
६.
५. वही ६.२८ सर्वार्थसिद्धि :
७.
उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम्
८.
ऋतं दुःखम्, अर्दनमर्तिर्वा, तत्र भवमार्तम् ।
वही ६.२८ सर्वार्थसिद्धि :
नव पदार्थ
रुदः, क्रूराशयस्तस्य कर्म तत्र भवं वा रौद्रम्
वही ६.२८ सर्वार्थसिद्धि :
धर्मादनपेतं धर्म्यम्
वही ६.२८ सर्वार्थसिद्धि : शुचिगुणयोगाच्छुक्लम्