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आस्त्रव पदार्थ (ढाल : १४ : टिप्पणी ४०
योगास्रव में शुभ-अशुभ दोनों प्रकार के योगों का ग्रहण किया है' ।
स्वामीजी का कथन है- वास्तव में शुभयोग निर्जरा के हेतु हैं। अतः उनका समावेश योग आस्रव में नहीं होता परन्तु निर्जरा के साथ पुण्य का बंध अपने आप सहज भाव से होता है इस अपेक्षा से शुभ योगों को भी योग आस्रव में ग्रहण कर लिया जाता है। स्वामीजी अन्यत्र लिखते हैं
"सातावेदनीय सुभायुष्य शुभनाम कर्म उच्चगोत्र ए च्यारूं कर्म पुन्य छै । ए च्यारां ही नी करणी सूत्र मैं निरवद्य कही छै अनै आज्ञा माहिंली करणी करतां लागे छै। सुभ जोग प्रवर्त्तायां लागै छै । ते तो करणी निर्जरा नी छै । तिण करणी करतां पाप कटै । तिण करणी ने तो सुभ जोग निर्जरा कहीजे । ते सुभ जोग प्रवर्त्तावतां नाम कर्म ना उदय सूं सहजे जोरी दावै पुन्य बंधे छै। जिम गंहु निपजतां खाखलो सहजे नीपजै छै तिम दयादिक भी करणी करतां सुभ जोग प्रवर्त्तावतां पुन्य सहजेइ लागै छै । इम निर्जरा नी करणी करता कर्म कटै अने पुन्य बंधे । ठाम २ सूत्र मैं निरवद्य करणी ते संवर निर्जरा नी कही । पुन्य तो जोरी दावै विना वांछा लागे छै। शुद्ध साधु ने अन्न दीधो तिवारे अव्रतमा सूं काढै नै व्रत मै घाल्या ते तो व्रत नीपनों अनें सुभ जोग प्रवर्त्या सूं निर्जरा हुई। सुभ जोग प्रवर्त्ते तठे पुन्य माडाणी बंधे' ।" (देखिए टि० १५ पृ० १७३ - ५ : टि० ४ ( २ ) पृ० २०४ तथा टि० ६.५ पृ० ३७९)
४०. सर्व सांसारिक कार्य जीव - परिणाम हैं ( गा० ५९ ) :
योग शब्द अत्यन्त व्यापक है। उसके अन्तर्गत मन-वचन-काय के सर्व व्यापार-कार्य, क्रिया, कर्म और व्यवहारों का समावेश हो जाता है। प्रवृत्ति मात्र योग है। स्वामीजी कहते हैं: "प्रवृत्तियों - कार्यों-क्रियाओं की संख्या गिनाना असंभव होने पर भी अनन्त प्रवृत्तियों का सामान्य लक्षण यह है कि वे कर्म की हेतु हैं- आस्रव स्परूप हैं ।" स्वामीजी कहते हैं: "क्रिया मात्र जीव के ही होती है- जीव- परिणाम है। अतः योग आस्रव जीव ठहरता
है ।"
१.
४२१
२.
(क) तत्त्वा० ६.१-४
(ख) अभयदेव - मणवायाकायाणं, भेएणं हुंति तिन्नि जोगाउ
३०६ बोल की हुण्डी : बोल ६५