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नव पदार्थ
__ यहाँ अकुशल मन के निरोध और कुशल मन के प्रवर्तन का कहा गया है। अकुशल मन का अर्थ है बुरा भावमन । कुशल मन का अर्थ है भला भावमन । अच्छा या बुरा भावमन जीव-परिणाम है। यदि भावमन अजीव हो तो उसके निरोध या प्रवर्तन का कोई अर्थ ही नहीं निकलेगा।
मन की प्रवृत्ति ही भावयोग है और यही योग आस्रव है। अतः योग आस्रवजीव परिणाम सिद्ध होता है। अनुयोगद्वार सामाइक अधिकार में निम्न पाठ मिलता है :
तो समणो जइ सुमणो, भावेण य जइ ण होइ पावमणो। सयणो य जणे य समो समो य माणावमाणेसु।।
इस पाठ से मन के दो प्रकार होते हैं-द्रव्यमन और भावमन । द्रव्यमन रूपी है। पौद्गलिक है। भावमन जीव-परिणाम है। अरूपी है। वचन और काय योग के विषय में भी यही बात लागू होती है। भावमन-वचन-काय योग ही योगास्रव है अतः जीव और अरूपी
३९. निरवद्य योग को आस्रव क्यों माना जाता है ? (गा० ५८) :
आस्रव के भेदों की विवेचना करनेवाली किसी भी परम्परा को लें। उसमें योग आस्रव का उल्लेख अवश्य है। योग आस्रव का उल्लेख सब परम्पराओं में समान रूप से होने पर भी उसकी व्याख्या की दृष्टि से दो परम्पराएँ उपलब्ध हैं। एक परम्परा योग आस्रव में शुभ-अशुभ दोनों प्रकार के योगों का समावेश करती है। दूसरी परम्परा केवल अशुभ योगों को ही ग्रहण करती है।
स्वरचित 'नवतत्त्वप्रकरण' में देवेन्द्रसूरि ने आस्रव के ४२ भेदों को गिनाते हुए तीन योग' की व्याख्या इस प्रकार की
"मणवयतणुजोगतियं, अपसत्थं तह कसाय चत्तारि२ :
अपनी अन्य कृति नवतत्त्वप्रकरण की बृहत् वृत्ति में मूल कृति के 'तीन योग' की व्याख्या देते हुए वे लिखते हैं
"अशुभमनोवचनकाययोगा इति योगत्रिकम् ।"
इससे स्पष्ट है कि योग आस्रव में उन्होंने अप्रशस्त या अशुभ मन-वचन-काययोगों को ही ग्रहण किया है, शुभ योगों को नहीं। उमास्वाति तथा अन्य अनेक आचार्यों ने १. इन परम्पराओं के लिए देखिए टिप्पणी ५ पृ० ३७२ । इनके अतिरिक्त एक अन्य परम्परा
भी है जिसमें कषाय और योग इन दो को ही बंध-हेतु कहा है। २. नवतत्त्वसाहित्यसंग्रहः श्रीनवतत्त्वप्रकरणम् गा० ३६ ३. वहीः अव० वृत्यादिसमेतं नवतत्त्वप्रकरणम् गा० ।।१२।। ३७।। की वृत्ति