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आस्त्रव पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी १७
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आस्रव हैं; प्राणातिपातादि स्थानक आस्रव नहीं । अतः भगवती सूत्र के उक्त उल्लेख से आस्रव रूपी नहीं ठहरता ।
प्राणातिपात आदि अठारह ही अलग-अलग पाप हैं और अठारह ही आस्रव हैं। इनके आधार स्वरूप अठारह पाप-स्थानक हैं । जिस स्थानक का उदय होता है उसी के अनुरूप पाप जीव करता है। ये स्थानक अजीव हैं । चतुःस्पर्शी कर्म हैं। रूपी हैं। पर इनके उदय से जीव जो कार्य करता है और जो आस्रव रूप हैं वे अरूपी होते हैं। जिनके उदय से मनुष्य हिंसा आदि पाप-कार्य करता है वे मोहकर्म हैं- अठारह पाप-स्थानक हैं और उदय से जो हिंसा आदि कर्तव्य - व्यापार जीव करता है वे योगास्रव हैं। इस तरह पाप-स्थानक और पाप दोनों भिन्न-भिन्न हैं ।
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• प्राणातिपात-हिंसा आदि पाप जीव करता है । प्राणातिपात पाप-स्थानक उसके उदय में होते हैं । प्राणातिपातादि स्थानकों के उदय से जीव जो हिंसादि सावद्य कार्य करता है वे जीव परिणाम हैं। वे ही आस्रव हैं और अरूपी हैं। इनसे जीव- प्रदेशों में नये कर्मों का प्रवेश होता है' ।
भगवती सूत्र में कहा है- "एवं खलु पाणाइवाए जाव मिच्छादंसणसल्ले वट्टमाणे सच्चेव जीवे सच्चेव जीवाया ।" अर्थात् प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य पर्यन्त में वर्तमान जीव है वही जीवात्मा है । यह कथन भी प्राणातिपात आदि आस्रवों को जीव-परिणाम सिद्ध करता है।
१७. अध्यवसाय, परिणाम, लेश्या, योग और ध्यान ( गा० ३७ - ४१ ) :
स्वामीजी ने इन गाथाओं में जो कहा है उसका सार इस प्रकार है : अध्यवसाय परिणाम, लेश्या, योग और ध्यान दो-दो प्रकार के होते हैं- शुभ-अच्छे और अशुभ- मलीन । शुभ अध्यवसाय, परिणाम, लेश्या, योग और ध्यान पुण्य के द्वार हैं तथा अशुभ अध्यवसाय, परिणाम, लेश्या, योग और ध्यान पाप के द्वार । शुभ-अशुभ दोनों ही अध्यवसाय, परिणाम, श्या योग और ध्यान - जीव - परिणाम, जीव-भाव, जीव-पर्याय हैं। शुभ परिणामादि संवर
१. विस्तृत व्याख्या के लिए देखिए पृ० २६१ - २६४ टि० २ (१) । इसी विषय पर श्रीमद् जयाचार्य ने जो ढाल लिखी है उसका कुछ अंश पृ० २६३ पर उद्धृत है। समूची ढाल परिशिष्ट में दी जा रही है।
२. भगवती १७.२