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________________ आस्त्रव पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी १७ ४६५ आस्रव हैं; प्राणातिपातादि स्थानक आस्रव नहीं । अतः भगवती सूत्र के उक्त उल्लेख से आस्रव रूपी नहीं ठहरता । प्राणातिपात आदि अठारह ही अलग-अलग पाप हैं और अठारह ही आस्रव हैं। इनके आधार स्वरूप अठारह पाप-स्थानक हैं । जिस स्थानक का उदय होता है उसी के अनुरूप पाप जीव करता है। ये स्थानक अजीव हैं । चतुःस्पर्शी कर्म हैं। रूपी हैं। पर इनके उदय से जीव जो कार्य करता है और जो आस्रव रूप हैं वे अरूपी होते हैं। जिनके उदय से मनुष्य हिंसा आदि पाप-कार्य करता है वे मोहकर्म हैं- अठारह पाप-स्थानक हैं और उदय से जो हिंसा आदि कर्तव्य - व्यापार जीव करता है वे योगास्रव हैं। इस तरह पाप-स्थानक और पाप दोनों भिन्न-भिन्न हैं । 1 • प्राणातिपात-हिंसा आदि पाप जीव करता है । प्राणातिपात पाप-स्थानक उसके उदय में होते हैं । प्राणातिपातादि स्थानकों के उदय से जीव जो हिंसादि सावद्य कार्य करता है वे जीव परिणाम हैं। वे ही आस्रव हैं और अरूपी हैं। इनसे जीव- प्रदेशों में नये कर्मों का प्रवेश होता है' । भगवती सूत्र में कहा है- "एवं खलु पाणाइवाए जाव मिच्छादंसणसल्ले वट्टमाणे सच्चेव जीवे सच्चेव जीवाया ।" अर्थात् प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य पर्यन्त में वर्तमान जीव है वही जीवात्मा है । यह कथन भी प्राणातिपात आदि आस्रवों को जीव-परिणाम सिद्ध करता है। १७. अध्यवसाय, परिणाम, लेश्या, योग और ध्यान ( गा० ३७ - ४१ ) : स्वामीजी ने इन गाथाओं में जो कहा है उसका सार इस प्रकार है : अध्यवसाय परिणाम, लेश्या, योग और ध्यान दो-दो प्रकार के होते हैं- शुभ-अच्छे और अशुभ- मलीन । शुभ अध्यवसाय, परिणाम, लेश्या, योग और ध्यान पुण्य के द्वार हैं तथा अशुभ अध्यवसाय, परिणाम, लेश्या, योग और ध्यान पाप के द्वार । शुभ-अशुभ दोनों ही अध्यवसाय, परिणाम, श्या योग और ध्यान - जीव - परिणाम, जीव-भाव, जीव-पर्याय हैं। शुभ परिणामादि संवर १. विस्तृत व्याख्या के लिए देखिए पृ० २६१ - २६४ टि० २ (१) । इसी विषय पर श्रीमद् जयाचार्य ने जो ढाल लिखी है उसका कुछ अंश पृ० २६३ पर उद्धृत है। समूची ढाल परिशिष्ट में दी जा रही है। २. भगवती १७.२
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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