SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 489
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६४ नव पदार्थ १५. स्वाभाविक आस्रव (गा० २३-२५) : स्वामीजी ने इन गाथाओं में २० आस्रवों में स्वाभाविक कितने हैं और कर्तव्य रूप कितने हैं-इसका विवेचन किया है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग का सामान्य रूप यह है कि ये पाँचों ही आस्रव-द्वार हैं। पाँचों ही कर्मों के कर्ता-हेतु-उपाय हैं। गृह के प्रवेश-द्वार की तरह आस्रव जीव-प्रदेश में कर्मों के आगमन के हेतु हैं-'शुभाशुभकर्मागमद्वार रूप आस्रव' ।' ___ 'आस्रवन्ति प्रविशन्ति ये कर्माण्यानीत्याश्रवः कर्मबन्धहेतुरिति भावः-आदि व्याख्याएँ-इसी बात को पुष्ट करती हैं। उपर्युक्त पाँच आस्रवों में मिथ्यात्व, अविरति, अप्रमाद और कषाय ये स्वभाव रूप हैं-आत्मा की स्थिति रूप हैं । ये आत्म की अमुक प्रकार की भाव-परिणति रूप हैं-योग आस्रव इनसे कुछ भिन्न है । वह स्वभाव रूप-स्थिति रूप-परिणति रूप भी होता है और प्रवृत्ति रूप भी। प्रथम चार आस्रव प्रवृत्ति रूप-क्रिया रूप-व्यापार रूप नहीं । व्यापार रूप आस्रव केवल योग है। बीस आस्रवों में अन्तिम पंद्रह क्रिया रूप हैं-व्यापार रूप हैं। योग आस्रव भी व्यापार रूप है अतः उक्त पंद्रह आस्रवों का समावेश योग आस्रव में होता है। वास्तव में उक्त पंद्रह आस्रव योगास्रव के ही भेद अथवा रूप हैं। क्योंकि हिंसा करना, झूठ बोलना यावत् सूची-कुशाग्र का सेवन करना-योग के अतिरिक्त अन्य नहीं। १६. पापस्थानक और आस्रव (गा० २६-३६) : प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य अठारह पाप भी आस्रव हैं। स्वामीजी ने आस्रव को जीव-परिणाम कहा है। भगवती सूत्र में प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य को रूपी-वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शयुक्त कहा है। स्वामीजी के सामने प्रश्न आया कि भगवती सूत्र के उक्त उल्लेख से प्राणातिपात आदि अठारहों आस्रव रूपी ठहरते हैं उन्हें अरूपी किस आधार पर कहा जा सकता है। स्वामीजी इसी शंका का समाधान यहाँ करते हैं। उनका कहना है कि भगवती में प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्यस्थानक को रूपी कहा है; प्राणातिपातादि अठारह पापों को नहीं। प्राणातिपातादि पाप १. तत्त्वा० १.४ सर्वार्थसिद्धि २. ठाणाङ्ग १.१३ टीका ३. देखिए टि० २(१) पृ० २६२
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy