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नव पदार्थ
निर्जरा के हेतु हैं। उनसे पुण्य का आगमन उसी प्रकार सहज भाव से होता है जिस प्रकार धान के साथ पुआल की उत्पत्ति । अशुभ परिणाम आदि एकांत पाप के कर्ता हैं'। '
लेश्या और योग के सम्बन्ध में स्वामीजी ने अन्यत्र लिखा है :
"अनुयोगद्वार में जीव उदय-निष्पन्न के ३३ बोलों में छ: भाव लेश्याओं का उल्लेख है। जो तीन भली लेश्याएँ हैं, वे धर्म लेश्याएँ हैं। निर्जरा की करनी हैं। पुण्य ग्रहण करती हैं उस अपेक्षा से वे उदयभाव कही गयी हैं। जो तीन अधर्म लेश्याएँ हैं, उनसे एकान्त पाप लगता है। वे प्रत्यक्षतः उदयभाव हैं-अप्रशस्त कर्तव्य की अपेक्षा से।
“उदय के ३३ बोलों में सयोगी भी है। उसमें सावद्य और निरवद्य दोनों योगों का समावेश है। निरवद्य योग निर्जरा की करनी है। उससे निर्जरा होती है; साथ-साथ पुण्य भी लगता है जिस अपेक्षा से उन्हें उदयभाव कहा है। सावध योग पाप का कर्ता है। सावध योग प्रत्यक्षतः उदयभाव है। .
__ "छहों भाव लेश्याएँ उदयभाव हैं। तीन भली लेश्या और निरवद्य योग को उदय भाव में तीर्थंकर ने कहा है। निरवद्य योग और निरवद्य लेश्या पुण्य के कर्ता हैं। इसका न्याय इस प्रकार है। अन्तरायकर्म के क्षय होने से नामकर्म के संयोग से क्षायक वीर्य उत्पन्न होता है। वह वीर्य स्थिर-प्रदेश है। जो चलते हैं वे योग हैं। मोहकर्म के उदय से नामकर्म के संयोग से चलते हैं वे सावद्य योग हैं, पाप के कर्ता हैं। मोहकर्म के उदय बिना नामकर्म के संयोग से जीव के प्रदेश चलते हैं वह निरवद्य योग है। निरवद्य योग निर्जरा की करनी हैं। पुण्य के कर्ता हैं।
"अन्तरायकर्म के क्षय और क्षयोपशम होने से वीर्य उत्पन्न होता है। इस वीर्य का व्यापार भला योग और भली लेश्या है। निर्जरा की करनी है। पुण्य का कर्ता है। अनुयोगद्वार में छहों भावलेश्याओं को उदयभाव कहा है। सयोगी कहने से भले-बुरे योगों को भी उदयभाव कहा है। भली लेश्या और भले योग पुण्य ग्रहण करते हैं जिससे उन्हें उदयभाव कहा है। भले योग और भली लेश्या से कर्म कटते हैं उस अपेक्षा से उन्हें निर्जरा की करनी कहा गया है। छहों लेश्याओं को कर्मों का कर्ता कहा है। भली लेश्या भली गति का बन्ध करती है। बुरी लेश्या बुरी गति का बन्ध करती है।
१. देखिए पृ० १७५, २४४-२४५