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आस्त्रव पदार्थ (ढाल : २)
१०.
११.
१४.
परिग्रह रखना पाँचवाँ परिग्रह आस्रव कहा है। जो परिग्रह रखता है वह जीव है। मूर्च्छा परिग्रह है और वह जीव-परिणाम है। इससे अतीव पापकर्म लगते हैं ।
१२-१३. श्रोत्रेन्द्रिय का विषय शब्द है, वह शब्द को ग्रहण करती है । चक्षु इन्द्रिय का विषय रूप है, वह रूप को ग्रहण करती है । घ्राणेन्द्रिय गंध का भोग करती है । रसनेन्द्रिय रसास्वादन करती है। स्पर्शनेन्द्रिय स्पर्श का भोग करती है । पाँचों इन्द्रियों के ये स्वभाव हैं। इन इन्द्रियों के विषयों में राग-द्वेष करना क्रमशः श्रोत्रादि इन्द्रिय आस्रव है । ( राग-द्वेष करना जीव के भाव हैं) अतः श्रोत्रादि इन्द्रिय आस्रव जीव है।
पाँचों इन्द्रियों को प्रवृत्त करना क्रमशः श्रोत्रादि आस्रव हैं । इन्द्रियों को जीव ही प्रवृत्त करता है । शब्दादिक विषयों पर राग-द्वेष का होना जीव परिणाम है ।
१६.
तीनों योगों का व्यापार योग आस्रव है | योग-व्यापार जीव ही करता है। योग आस्रव को अजीव कहने वाले मूर्ख और मिथ्यात्वी हैं। उनके घट में ज्ञान - दीपक नहीं है ।
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१५. तीनों योगों का व्यापार जीव का ही है । वे योग जीव-परिणाम हैं। अशुभ योग अशुभ लेश्या के लक्षण हैं। सूत्रों में योगात्मा कही गयी है।
भंड- उपकरण आदि रखने उठाने में अयतना करना भंडोपकरण आस्रव है" । यह अच्छी तरह समझ लो कि आस्रव जीव-स्वभाव - परिणाम है।
१७. सूई कुशाग्रमात्र का सेवन करना बीसवाँ आस्रव है"। इस का सेवना जीव करता है। सूई कुशाग्र-सेवन को अजीव मानने वालों के मिथ्यात्व की गहरी नींव है।
(१०) परिग्रह
आस्रव
(११-१५) पंच
४३३
इन्द्रिय
आस्रव
(१६-१८) मन
वचन
काय
प्रवृत्ति
आस्रव
(१६) भंडोपकरण
आस्रव
(२०) सूई कुशाग्र सेवन आस्रव