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नव पदार्थ
शुभ योगों से है । केवली के भी शुभ योग आस्रव है । निरवद्य करनी करते समय शुभ कर्मों का आगमन होता है। इसे पुण्य का बंध कहते हैं । सावद्य करनी करते समय अशुभ योगों का आगमन होता है। इसे पाप का बंध कहते हैं। बंधे हुए पुण्य शुभ रूप से उदय में आते हैं और बंधे हुए पाप अशुभ रूप से। ये तीर्थङ्करों के वचन हैं।"
स्वामीजी के साथ योग सम्बन्धी विविध पहलुओं पर अनेक चर्चाएँ हुई । प्रसंगवश यहाँ कुछ चर्चाओं का सार मात्र दिया जा रहा है ।
(१) तीन योगों से भिन्न कार्मण योग है वही पाँचवाँ आस्रव है
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स्वामीजी के सम्मुख योग विषय में एक नया मतवाद उपस्थित हुआ । इसकी प्ररूपणा थी- "मन योग, वचन योग और काय के उपरान्त चौथा योग कार्मण योग होता है । यह तीनों ही योगों से अलग है। योग आस्रव में यही आता है; प्रथम तीन नहीं । यह अनादिकालीन है। इसका विरह नहीं पड़ता । यह स्वाभाविक योग है। यह मोहकर्म के उदय से है। सावद्य योग है। यह छेदने पर भी नहीं छिदता । यह अनादि कालीन स्वाभाविक सावद्य योग है। निरंतर पुण्य पाप का कर्त्ता हैं। जीव तप संयम करता है उस समय यह सावद्य योग पुण्य ग्रहण करता है। इसे सावद्य योग कहें, चाहे अशुभ योग कहें, चाहे माठा योग कहें, चाहे अधर्म कहें, चाहे सावद्य अधर्म आस्रव कहें, चाहे पुण्य का कर्त्ता अधर्म कहें, चाहे पुण्य का कर्त्ता सावद्य कहें।"
स्वामीजी ने इसका विस्तृत उत्तर दिया है। उसका संक्षिप्त सार इस प्रकार है : "योग तीन ही कहे हैं। मन योग, वचन योग और काय योग। इन तीन योगों के उपरांत चौथे योग का श्रद्धान मिथ्या श्रद्धा है। तीन योग के १५ भेद किये हैं- मन के चार, वचन के चार और काया के सात । इन पंद्रह योगों के सिवा सोलहवें योग का श्रद्धान सिद्धान्त के विरुद्ध है। योग किस को कहते हैं ? योग अर्थात् मन, वचन और काय का व्यापार | व्यापार या तो सावद्य होता है अथवा निरवद्य । सावद्य व्यापार पाप की करनी है और निरवद्य व्यापार निर्जरा और पुण्य की करनी है। सावद्य-निरवद्य व्यापार योग है; अन्य योग नहीं ।
"पुण्य के कर्त्ता तीनों ही योग निरवद्य हैं। पाप के कर्त्ता तीनों ही योग सावद्य हैं। व्यापार जीव के प्रदेशों की चंचलता - चपलता है । जब आत्मा शक्ति, बल और
टीकम डोसी की चर्चा से उनका लिखित प्रश्न
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