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आस्त्रव पदार्थ (ढाल : २)
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सर्व सावद्य कार्य
आस्रव हैं
४८. बुरे-बुरे कार्य, बुरे-बुरे व्यापार सब जीव के ही व्यापार
हैं । वे जिन भगवान की आज्ञा के बाहर के कार्य हैं और सभी आस्रव-द्वार हैं।
संज्ञाएँ आस्रव हैं
मोहकर्म के उदय से जीव की चार संज्ञाएँ होती हैं। ये पाप कर्मों को खींच २ कर उन्हें ग्रहण करती हैं। पाप कर्मों के ग्रहण की हेतु होने से संज्ञाएँ आस्रव हैं। ये जीव के लक्षण-परिणाम हैं ।
५०. उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार-पराक्रम-इन सब के
निरवद्य व्यापार से जीव के पाप कर्म लगते हैं। ये आस्रव-द्वार भी जीव हैं।
उत्थान, कर्म आदि
आस्रव हैं (गा० ५०-५१)
५१. उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार-पराक्रम इनके निरवद्य
व्यापार से जीव के पुण्य कर्म लगते हैं। ये आस्रव-द्वार भी जीव हैं।
५२. संयम, असंयम, संयमासंयम-ये क्रमशः संवर, आस्रव
और संवरास्रव द्वार हैं। इसमें जरा भी शंका नहीं है।
संयम, असंयम, संयमासंयम आदि तीन-तीन बोल संवर, आस्रव और
संवरास्रव हैं (गा० ५२-५५)
इसी तरह व्रती, अव्रती और व्रताव्रती तथा प्रत्याख्यानी, अप्रत्याख्यानी और प्रत्याख्यानी-अप्रत्याख्यानी को समझो। इसी तरह पण्डित बाल और बालपण्डित तथा सुप्त जाग्रत और सुप्तजाग्रत को समझो।
५४. इसी तरह संवृत्त, असंवृत्त और संवृत्तासंवृत्त तथा धर्मी
धर्मार्थी, धर्म व्यवसायी के तीन-तीन बोलों को समझो।
५५.
ये सभी बोल संवर और आस्रव हैं यह अच्छी तरह पहचानो२ | जो आस्रव को अजीव मानते हैं वे पूरे मूर्ख और अज्ञानी हैं।