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नव पदार्थ
"हे भन्ते ! योगसत्य का क्या फल होता है ?" “योगसत्य से जीव योगों की विशुद्धि करता है।"
इसका भावार्थ है-मन, वचन और काय के सत्य से क्लिष्टबन्धन का अभाव कर जीव योगों को निर्दोष करता है।
यहाँ योगसत्य को गुणरूप माना है। जीव का गुण अजीव या रूपी नहीं हो सकता। योगसत्य-शुभ योग रूप है। इस तरह शुभ योग अरूपी ठहरता है।
स्थानाङ्ग सूत्र ५६४ में श्रद्धा, सत्य, मेधा, बहुश्रुतता, शक्ति, अल्पाधिकरणता, कलह-रहितता, धृति और वीर्य-इन्हें अनगार के गुण कहे हैं। ये गुण रूपी नहीं हो सकते वैसे ही योगसत्य गुण भी रूपी नहीं।
(३) वीर्य, जीव का गुण है यह ऊपर बताया जा चुका है (देखिए टि० ३)। अतः वीर्य रूपी नहीं हो सकता।
गौतम ने पूछा योग किस से होता है तब भगवान ने उत्तर दिया वीर्य से। वीर्य जीव गुण है। अरूपी है। उससे उत्पन्न योग रूपी कैसे होगा ?
स्वामीजी अन्यत्र लिखते हैं : “स्थानाङ्ग (३.१) में तीन योग कहे हैं-तिविहे जोग पण्णता तंजहा मण जोगे १ वय जोगे२ काय जोगे३। यहाँ टीका में योगों को क्षयोपशम भाव कहा है। आत्म-वीर्य कहा है। आत्म-वीर्य अरूपी है। यह भावयोग है। द्रव्ययोग तो पुद्गल है। वे भावयोग के साथ चलते हैं। भावयोग आस्रव है।
(४) आठ आत्मा में योग आत्मा का भी उल्लेख है यह पहले बताया जा चुका है (देखिए टि० २४, पृ० ४०५)। योग आत्मा जीव है अतः रूपी नहीं हो सकता।
योग जीव-परिणाम है, यह भी पहले बताया जा चुका है (देखिए टि० २४ पृ० ४०५) अतः वह रूपी नहीं अरूपी है।
१. उत्त० २६.५२ की टीका : 'योगसत्येन-मनोवाक्कायसत्येन योगान् 'विशोधयति' क्लिष्टकर्मा
बन्धकत्वाऽभावतो निर्दोषान् करोति। २. अट्ठहिं ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहति एगल्लविहारपडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तते,
तं०-सड्डी पुरिसजाते सच्चे पुरिसजाए मेहावी पुरिसजाते बहुस्सुते पुरिसजाते सत्तिमं
अप्पाहिकरणे धितिमं वीरितसंपन्ने। ३. ३०६ बोल की हुंडी : बोल १५७