________________
आस्त्रव पदार्थ (ढाल : १) : टिप्पणी ४१
४२३
करने में कारण होने से आस्रव हैं। तथा भगवती में इस पाठ के आगे यह पाठ आया है कि-'दुक्खी दुक्खं परियायइ' अर्थात् 'कर्म से युक्त मनुष्य कर्म का ग्रहण करता है। इस पाठ से कर्म का आस्रव होना सिद्ध होता है। कर्म पौद्गलिक अजीव है इसलिए आस्रा पौद्गलिक अजीव भी सिद्ध होता है। उसे एकान्त जीव मानने वाले अज्ञानी हैं।"
उक्त मंतव्य में कर्म को आस्रव कह कर आस्रव को अजीव भी प्रतिपादित किया गया है।
. कर्म आस्रव हो सकता है या नहीं ? इस प्रश्न पर श्रीमद् राजचन्द्र ने बड़ा अच्छा विवेचन किया है। वे लिखते हैं : “चैतन्य की प्रेरणा न हो तो कर्मों को ग्रहण कौन करेगा ? प्रेरणा करके ग्रहण कराने का स्वभाव जड़ वस्तु का है ही नहीं। और यदि ऐसा हो तो घट-पट आदि वस्तुओं में भी क्रोधादि भाव तथा कर्मों को ग्रहण करना होना चाहिए। किन्तु ऐसा अनुभव तो आज तक किसी को नहीं हुआ। इससे यह अच्छी तरह सिद्ध हो जाता है कि चैतन्य जीव ही कर्मों को ग्रहण करता है। इस प्रकार जीव कर्मों का कर्ता सिद्ध होता है।
“कर्मों का कर्ता कर्म को कहना चाहिए-इस शंका का समाधान इस उत्तर से हो जायेगा कि जड़ कर्मों में प्रेरणारूप धर्म के न होने से उनमे चैतन्य की भाँति कर्मों को ग्रहण करने का सामर्थ्य नहीं है और कर्मों का कर्त्ता जीव इस तरह है कि उसमें प्रेरणा-शक्ति है। इस तरह सिद्ध होता है कि जीव ही कर्मों का कर्ता है।
भगवती सूत्र के उक्त वार्तालाप का अभिप्राय है :
"अकर्मा के कर्म का ग्रहण और बन्ध नहीं होता। पूर्व कर्म से बंधा हुआ जीव ही नए कर्मों का ग्रहण और बन्ध करता है। अगर ऐसा न हो तो मुक्त जीव भी कर्म से बन्धे बिना न रहे। इससे संसारी जीव ही कर्मों का कर्ता ठहरता है न कि जीव के साथ बन्धे हुए कर्म । 'कर्म से युक्त मनुष्य कर्म का ग्रहण करता है' इससे मनुष्य ही कर्मों का कर्ता सिद्ध होता है। (विस्तृत विवेचन के लिए देखिए टि० २२ पृ० ४०१-४०३ तथा टि० ७ (१५) पृ० ३३)
___ 'अज्झत्थहेउं निययस्स बंधो' (उत्त० १४.१६) अध्यात्म हेतुओं से ही कर्मों का बंध होता है। ‘पंच आसवादारा पन्नता' (स्था० सम०)-पाँच आस्रव-द्वार हैं। ऐसे ही
१. सद्धर्ममण्डनम्ः आश्रवाधिकार बोल २२