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आस्त्रव पदार्थ (ढाल : १) : टिप्पणी ३८
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__ स्वामीजी के कहने का तात्पर्य है-आत्म की चंचलता-आत्म-प्रदेशों का कंपन ही आस्रव है अतः आस्रव आत्म-परिणाम है। संवर आत्म-प्रदेशों की स्थिरता है अतः वह भी आत्म-परिणाम है। ऐसी स्थिति में आस्रव को अजीव अथवा जीव-अजीव परिणाम नहीं कहा जा सकता।
३८. योग पारिणामिक और उदय भाव है अत: जीव है (गा० ५७) :
योग के दो भेद हैं-(१) द्रव्ययोग और (२) भावयोग। द्रव्ययोग कर्मागमन के हेतु नहीं होते। भावयोग ही कर्मागमन के हेतु होते हैं।
__कर्मबद्ध सांसारिक प्राणी एक स्थिति में नहीं रहता। वह एक स्थिति से दूसरी स्थिति में गमन करता रहता है। इसे परिणमन कहते हैं। भावयोग इस परिणमन से उत्पन्न जीव की एक अवस्था विशेष है अतः वह जीव-पर्याय है।
आगम में जीव के परिणामों का उल्लेख करते हुए उनमें योग-परिणाम का भी नाम निर्दिष्ट हुआ है (देखिए टि० २४ पृ० ४०५)। यह भावयोग है।
द्रव्ययोग पौद्गलिक हैं अतः अजीव हैं। भावयोग जीव-परिणाम हैं अतः जीव हैं। भावयोग ही आस्रव हैं अतः वे जीव-पर्याय हैं।
बंधे हुए कर्म जीव के उदय में आते हैं। कर्मों के उदय में आने पर जीव में जो भाव–परिणाम उत्पन्न होते हैं उनमें सयोगीत्व भी है। (देखिए टि० २६ पृ० ४०६-७) । कर्म के उदय से जीव में जो भाव–परिणाम-अवस्थाएँ होती हैं वे अजीव नहीं होतीं। जीव के सारे भाव-परिणाम चेतन ही होते हैं । अतः सयोगीपन भी चेतन भाव है। सयोगीपन ही योग आस्रव है अतः वह जीव है।
अनुयोगद्वार में ‘सावज्ज जोग विरई' को सामायिक कहा है। यहाँ योग को सावध कहा है। अजीव को सावद्य-निरवद्य नहीं कहा जा सकता। सावद्य-निरवद्य तो जीव को ही कहा जाता है। योग को सावद्य कहा है-इसका अर्थ है भावयोग सावध है। भावयोग ही योग आस्रव है। इस हेतु से योग आस्रव है।
औपपातिक सूत्र में निम्न पाठ है : से किं तं मणजोगपडिसंलीणया, मणजोगपडिसलीणया अकुसल मण निरोधो वा कुसल मण उदरिणं वा से तं मणजोगपडिसंलीणया। "मनयोग प्रतिसंलीनता किसे कहते हैं ?" अकुशल मन का निरोध और कुशल मन की उदीरणा-प्रवृत्ति मनयोग प्रतिसंलीनता