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आस्त्रव पदार्थ (ढाल : १) : टिप्पणी २६-३०
२९. मिथ्यात्व आश्रव ( गा० ४१ ) :
स्थानाङ्ग स्था० १० उ० १ सू० ७३४) में दस मिथ्यात्व सम्बन्धी पाठ इस प्रकार है: दसविधे मिच्छत्ते पं० तं० अधम्मे धम्मसन्ना धम्मे अधम्मसन्ना अमग्गे मग्गसन्ना मग्गे उम्मग्गसन्ना अजीवेसु जीवसन्ना जीवेसु अजीवसन्ना असाहुसु साहुसन्ना साहुसु असाहुसन्ना अमुत्तेसु मुत्तसन्ना मुत्तेसु अमुत्तसन्ना
अधर्म में धर्म की संज्ञा आदि को मिथ्यात्व कहा है। मिथ्यात्व अर्थात् विपरीत बुद्धि अथवा श्रद्धा । यह विपरीत बुद्धि अथवा असम्यक् श्रद्धा व्यापार जीव के ही होता है। जीव का व्यापार जीव रूप है; अरूपी है-अजीव अथवा रूपी नहीं हो सकता। मिथ्यात्व ही मिथ्यात्व आस्रव है अतः वह अरूपी जीव है ।
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भगवती श० १२ उ० ५ में निम्न पाठ मिलता है :
सम्मद्दिट्ठि ३ चक्खुदंसणे ४ आभिणिबोहियणाणे ५ जाव - विब्भंगणाणे आहारसन्ना, जाव - परिग्गहसन्ना - एयाणि अवन्नाणि ।
यहाँ सम्यक्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, सम्यक्मिथ्यादृष्टि - इन तीनों दृष्टियों में मिथ्यादृष्टि को भी अवर्ण-अरूपी कहा है। विपरीत श्रद्धारूप उदयभाव, मिथ्यादृष्टि को ही मिथ्यात्व आस्रव कहा जाता है । इस न्याय से मिथ्यात्व आस्रव भी जीव और अरूपी है।
३०. आस्रव और अविरति अशुभलेश्या के परिणाम ( गा० ४२ ) :
उत्तराध्ययन (३४.२१-२२ ) में आस्रवप्रवृत्त दुराचारी को कृष्णलेश्या के परिणाम वाला कहा है :
पंचासवप्पवत्तो तीहिं अगुत्तो छसुं अविरओ य । तिव्वारम्भपरिणओ खुड्डो साहसिओ नरो ।। निबन्धसपरिणामो निस्संसो अजिइन्दिओ ।
जोगसमा उत्त किण्हलेसं तु पारणमे ।।.
पाँच आस्रवों में प्रवृत्त, तीन गुप्तियों से अगुप्त, षट्काय की हिंसा से अविरत, तीव्र आरंभ में परिणमन करने वाला, क्षुद्र, साहसिक, निर्दय परिणाम वाला, नृशंस, अजितेन्द्रिय- इन योगों से युक्त पुरुष कृष्णलेश्या के परिणाम वाला होता है।
यहाँ पाँच आस्रवों को कृष्णलेश्या का लक्षण कहा है। भाव कृष्णलेश्या अरूपी है, यह सिद्ध किया जा चुका है अतः उसके परिणाम या लक्षण रूप आस्रव भी अरूपी हैं।