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नव पदार्थ
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वे स्थिर प्रदेश हैं। उसमें जो बल-पराक्रम शक्ति है वह नामकर्म के संयोग से वीर्य है। यही वीर्य आत्मा है। इस बल-पराक्रम-शक्ति के स्फोटन से प्रदेशों में हलचल होती है, जीव के प्रदेश आगे-पीछे होते हैं यह योग आत्मा है। ___ “मोहकर्म के उदय से, नामकर्म के संयोग से. जीव के प्रदेश चलते हैं उसे सावद्य-योग कहते हैं। यह योग आत्मा है।
- “मोहकर्म के उदय बिना नामकर्म के संयोग से जीव के प्रदेश चलते हैं उसे निरवद्य-योग कहते हैं। यह भी योग आत्मा है।"
“मोहकर्म के उदय से, नामकर्म के संयोग से जीव के प्रदेश चलते हैं, उसे अशुभ-योग कहते हैं। उससे एकान्त पाप लगता है।
“मोहकर्म के उदय से उदीर कर नामकर्म के संयोग से जीव प्रदेश का चलाना अशुभ योग है। उससे भी पाप कर्म लगते हैं। मोहकर्म के उदय बिना, नामकर्म के संयोग से जीव के प्रदेशों का चलाना शुभ योग है। उससे एकान्तं पुण्य लगता है।'
“मोहकर्म के उदय बिना नामकर्म की प्रकृति से उदीर कर जीव के प्रदेशों का चलाना शुभ योग है। वह निर्जरा की करनी है और पुण्य आकर लगते हैं।"
“जीव के प्रदेशों का चलना अथवा उदीर कर चलाना उदयभाव है। चपलता, चलाचलता ये भी उदय भाव हैं।
“सावद्य उदय भाव पाप का कर्ता है और निरवद्य उदय भाव. पुण्य का .
द्रव्य-आत्मा में अनन्त सामर्थ्य होता है। इसे लब्धिवीर्य कहते हैं। यह आत्मा का शुद्ध स्वाभाविक सामर्थ्य है। आत्मा और शरीर इन दोनों के संयोग से जो सामर्थ्य उत्पन्न होता है वह करणवीर्य है। यह आत्मा का क्रियात्मक सामर्थ्य है। इस करणवीर्य से आत्मा में कम्पन होता रहता है और इस कम्पन के कारण आत्मा कर्म-प्रदेशों में कर्म-पुदगलों को ग्रहण करती है। यही आस्रव है।
स्वामी कार्तिकेय लिखते हैं : “मन-वचन-काय योग हैं। वे ही आस्रव हैं। जीव । प्रदेशों का स्पन्दन विशेष योग है। वह दो प्रकार का है। मोह के उदय से सहित और मोह के उदय से रहित । मोह के उदय से जो परिणाम जीव के होते हैं वे ही आस्रव हैं। ये परिणाम मिथ्यात्वादि को लेकर अनेक प्रकार के हैं।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि योगरूप आत्म-स्पन्दन जीव के ही होता है। .. १. जोगां री चर्चा