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नव पदार्थ
२५. भावलेश्या आस्रव है, जीव है अत: सब आस्रव जीव हैं (गा० ३५-३६) :
भगवती श० १२ उ० ५ में निम्न पाठ मिलता है :
“कण्हलेसा णं भंते ! कइवन्ना-पुच्छा। गोयमा ! दव्वलेसं पडुच्च पंचवन्ना, जाव-अट्ठफासा पण्णत्ता, भावलेसं पडुच्च अवन्ना ४, एवं जाव सुक्कलेस्सा।"
"हे भन्ते ! कृष्णा लेश्या के कितने वर्ण हैं ?"
"हे गौतम ! द्रव्य लेश्या को प्रत्याश्रित कर पाँच वर्ण यावत् आठ स्पर्श कहे हैं | भाव लेश्या को प्रत्याश्रित कर उसे अवर्ण, अगंध, अरस, अस्पर्श-अरूपी कहा है। यही बात नील लेश्या, कापोत लेश्या, तेजो लेश्या, पद्म लेश्या और शुक्ल लेश्या तक जाननी चाहिए।
. लेश्या का अर्थ है जो आत्मा को-आत्मा के प्रदेशों को कर्मों से लिप्त करे । भाव लेश्या-जीव का अन्तरङ्ग परिणाम है। उपर्युक्त पाठ में जीव के अन्तरङ्ग परिणाम-रूप भावलेश्या को अरूपी कहा है। स्वामीजी कहते हैं-"भावलेश्या आस्रव है; अरूपी है अतः अन्य आस्रव भी जीव और अरूपी हैं। २६. मिथ्यात्वादि जीव के उदयनिष्पन्नं भाव हैं (गा० ३७) :
कर्मों के उदय से जीव में जो भाव-परिणाम निष्पन्न होते हैं उनमें छ: लेश्या, मिथ्यात्व, अविरति और चार कषाय का नामोल्लेख है।
अनुयोगद्वार सू० १२६ में कहा है-“उदय दो प्रकार का है-उदय और उदय-निष्पन्न । आठ कर्म प्रकृतियों का उदय उदय है। उदयनिष्पन्न दो प्रकार का है-जीवोदयनिष्पन्न और अजीवोदयनिष्पन्न । जीवोदयनिष्पन्न अनेक प्रकार का कहा है-नैरयिकत्व, तिर्यञ्चत्व, मनुष्यत्व, देवत्व, पृथिवीकायित्व यावत् त्रसकायित्व, क्रोध यावत्, लोभ कषाय, स्त्री वेद, पुरुष वेद, नपुंसक वेद, कृष्ण लेश्या यावत् शुक्ल लेश्या, मिथ्यादृष्टि, अविरति, असंज्ञी, अज्ञानी, आहारक, छद्मस्थता, सुयोगी, संसारता, असद्धित्व, अकेवली-ये सब जीवनिष्पन्न हैं।" मूल पाठ नीचे दिया जाता है : - "से किं तं उदइए ?, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-उदइए अ उदयनिप्फण्णे अ । से किं तं उदइए ?, २ अट्ठण्हं कम्मपयडीणं उदएणं, से तं उदइए। से किं तं, उदय-निप्फन्ने ? २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-जीवोदयनिप्फन्ने अ अजीवोदयनिष्फन्ने अ। से किं तं जीवोदयनिप्फन्ने ?, अणेगविहे पण्णत्ते, तंजहा-णेरइए तिरिक्खजोणिए मणुस्से. देवे पुढविकाइए जाव तसकाइए कोहकसाई जाव लोहकसाई इत्थीवेदए पुरिसवेदए णपुंसगवेदए