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नव पदार्थ
२३. आचाराङ्ग में अपनी ही क्रियाओं से जीव कर्मों का कर्ता कहा गया है
(गा० २८-३१):
स्वामीजी ने गाथा २८-२६ में प्रथम अङ्ग आचाराङ्ग के जिस संदर्भ का उल्लेख किया है उसका मूल पाठ इस प्रकार है : .
अकरिस्सं चऽहं, कारवेसुं चऽहं, करओ आवि समणुन्ने भविस्सामि। एयावंति सव्वावंति लोगसि कम्मसमारम्भा परिजाणियव्वा भवति ।।
इसका शब्दार्थ है- मैंने किया, मैंने करवाया, करते हुए का अनुमोदन करूँगा। सब इतनी ही लोक में कर्मबन्ध की हेतुरूप क्रियाएँ समझनी चाहिए।' . . इसका तात्पर्यार्थ है-मैंने किया, मैंने कराया, मैंने करते हुए का अनुमोदन किया; मैं करता हूँ, मैं कराता हूँ, करते हुए का अनुमोदन करता हूँ; मैं करूँगा, मैं कराऊँगा, मैं करते हुए का अनुमोदन करूँगा-ये क्रियाओं के विविध रूप हैं। ये कर्म के हेतु हैं। .
यहाँ 'मैं' आत्मा का बोधक है। मनोकर्म, वचन-कर्म और काय-कर्म-ये तीन योग हैं। करना, कराना और अनुमोदन करना-ये तीन करण हैं। प्रकारान्तर से कहा गया है कि आत्मा तीन करण एवं तीन योग से-मन, वचन, काय और कृत, कार्य, अनुमोदन रूप से भूत, वर्तमान, भविष्य काल में क्रियाओं का करने वाला है। ये क्रियाएँ कर्मबन्ध की हेतु हैं।
स्वामीजी कहते हैं- यहाँ जीव को स्पष्टतः क्रियाओं का कर्ता कहा है और क्रियाओं को कर्मों का कर्ता अर्थात् आस्रव ।
_ जिन क्रियाओं से जीव त्रिकाल में कर्मों का कर्ता होता है, वे योग आस्रव हैं। वे क्रियाएँ जीव के ही होती हैं। वे जीव से पृथक् नहीं, जीवस्वरूप हैं, जीव-परिणाम हैं अतः जीव हैं।
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आचा० १.१.६ आचारांग दीपिका १.१.६ इह त्रिकालापेक्षया कृतकारितानुमतिभिनव विकल्पाः संभवन्ति, ते चामी-अहमकाषं अचीकरमहं कुर्वन्तमन्यमन्वज्ञासिषमहं करोमि कारयामि अनुजानाम्यहं करिष्याम्यहं कारयिष्याम्यहं कुर्वन्तमन्यमनुज्ञास्याम्यहं, एते नव मनोवाक्कायैः चिन्त्यमाना भेदा भवन्ति। . अकार्षमहमित्यनेन विशिष्टक्रियापरिणतिरूपं आत्माऽभिहित............तत्र ज्ञपरिज्ञया सर्वेऽपि कर्मसमारम्भा ज्ञातव्याः, प्रत्याख्यानपरिज्ञया सर्वेऽपि पापो-पादानहेतवः. कर्मसमारम्भाः प्रत्याख्यातव्याः। ..