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नव पदार्थ
नाम कर्म की पुण्य-प्रकृतियों का विवेचन पुण्य पदार्थ की ढाल में किया जा चुका है। पाप-प्रकृतियों का विवेचन यहाँ गा० ४६ से ५६ में है। यहाँ उनपर कुछ प्रकाश डाला जा रहा है :
(१) नरकगतिनाम : नारकत्व आदि पर्याय-परिणति को गति कहते हैं। जिस कर्म का उदय नरक-भव की प्राप्ति का कारण हो उसे 'नरकगतिनाम कर्म' कहते हैं।
(२) तिर्यञ्चगतिनाम : जिस कर्म के उदय से तिर्यञ्च-भव की प्राप्ति हो उसे 'तिर्यञ्च गतिनाम कर्म' कहते हैं। पशु, पक्षी तथा वृक्ष आदि एकेन्द्रिय जीव इसी कर्म के उदय वाले हैं।
(३) एकेन्द्रियजातिनाम : जो कर्म जीव की जाति-सामान्यकोटि का नियामक हो उसे जातिनाम कर्म कहते हैं। जिस कर्म के उदय से जीव केवल स्पर्शनेन्द्रिय का धारक एकेन्द्रिय पृथ्वी, अप, वायु, तैजस और वनस्पतिकाय जाति का जीव हो उसे 'एकेन्द्रियजाति नामकर्म' कहते हैं :
(४) द्वीन्द्रियजातिनाम : जिस कर्म के उदय से जीव द्वीन्द्रिय-स्पर्श और जिह्य मात्र धारण करनेवाली जीव-जाति में जन्म ग्रहण करे उसे 'द्वीन्द्रियजातिनामकर्म' कहते हैं। कृमी, सीप, शंख आदि द्वीन्द्रिय जाति के जीव हैं।
(५) त्रीन्द्रियजातिनाम : जिस कर्म के उदय से जीव त्रीन्द्रिय-स्पर्श, जिह्म और घ्राण मात्र धारण करने वाली जीव-जाति में जन्म ग्रहण करे उसे 'त्रीन्द्रियजाति नाम कर्म' कहते हैं। कुन्थु, पिपीलिका आदि इस कर्म के उदयवाले जीव हैं। ... (६) चतुरिन्द्रियजातिनाम : जिस कर्म के उदय से जीव चतुरिन्द्रिय-स्पर्श, जिह्वा, घ्राण और चक्षु मात्र धारण करनेवाली जीव-जाति में जन्म ग्रहण करे उसे 'चतुरिन्द्रियजातिनामकर्म' कहते हैं। मक्षिका, मशक, कीट, पतंग आदि इसी कर्म के उदयवाले हैं
(७) ऋषभनाराचसंहनननाम : हाडबंध की विशिष्ट रचना का निमित्त कर्म संहनननामकर्म कहलाता है। जिस कर्म के उदय से ऋषभनाराचसंहनन प्राप्त हो वह 'ऋषभनाराचसंहनननामकर्म' है। दोनों ओर अस्थियाँ मर्कट-बन्ध से बंधी हों और उनके ऊपर पट्ट की तरह अन्य अस्थि का वेष्टन हो वैसे अस्थिबंध को 'ऋषभनाराचसंहनन' कहते हैं।
(E) नाराचसंहनननाम : जिस कर्म के उदय से नाराचसंहनन प्राप्त हो उसे 'नाराचसंहननामकर्म' कहते हैं। ऊपर ऋषभ पट्ट का वेष्टन न हो केवल दोनों ओर मर्कट-बंध हो उस अस्थिबंध को नाराचसंहनन कहते हैं।