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नव पदार्थ
में सावधान होता है, संयम योग से अपृथक् होता है और समाधिपूर्वक संयम से विचरता
सार है व्रतों के छिद्र-दोष आस्रव रूप हैं। प्रतिक्रमण से व्रतों के छिद्र-दोष रुकते हैं अतः फल स्वरूप जीव 'निरुद्धासवे'-आस्रव-रहित होता है। १०. प्रत्याख्यान विषयक प्रश्न और आस्रव (गा० १३) :
इस गाथा में स्वामीजी ने आस्रव के स्वरूप को बतलाने के लिए उत्तराध्ययन (२६.१३) के ही एक अन्य पाठ की ओर संकेत किया है। वह पाठ इस प्रकार है :
“पच्चक्खाणेणं भन्ते जीवे किं जणयइ ।। प० आसवदाराई निरुम्भइ । पच्चक्खाणेणं इच्छानिरोहं जणयइ। इच्छानिरोहं गए य णं जीवे सव्वदव्वेसु विणीयतण्हे सीइभूए विहरइ।। "भंते ! प्रत्याख्यान से जीव को क्या फल होता है ?"
"हे शिष्य ! प्रत्याख्यान से जीव आस्रव-द्वारों को रोकता है। प्रत्याख्यान से इच्छा-निरोध करता है। इच्छानिरोध से जीव सर्व द्रव्यों के प्रति वीततृष्णा हो शाँत होकर विचरण करता है।
इस वार्तालाप का सार भी यही है कि अप्रत्याख्यान आस्रव है। उससे कर्मों का आगमन होता है। जो प्रत्याख्यान करता है उसके आस्रव-निरोध होता है और नये कर्मों का प्रवेश नहीं होता। ११ तालाब का दृष्टान्त और आस्रव (गा० १४) : यहाँ संकेतित उत्तराध्ययन के ३० वें अध्ययन का पाठ इस प्रकार है :
जहा महातलायस्स सन्निरुद्ध जलागमे । उस्सिंचणाए तवणाए कमेणं सोसणा भवे ।।५।। एवं तु संजयस्सावि पावकम्मनिरासवे ।
भवकोडीसंचियं कम्मं तवसा निज्जरिज्जइ ।।६।। शिष्य पूछता है-“करोड़ों भवों से सञ्चित कर्मों से मुक्ति कैसे हो?"
गुरु कहते हैं-"जिस प्रकार किसी महा तालाब का पानी जलागमन के मार्ग को रोक देने पर उत्सिञ्चन और सूर्यताप से क्रमशः सूख जाता है वैसे ही पाप कर्म के आस्रवों को रोक देने पर-निरास्रवी हो जाने पर संयमी के कोटि भवों से सञ्चित कर्म तप के द्वारा निर्जरा को प्राप्त होते हैं।"