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आस्त्रव पदार्थ (ढाल : १) : टिप्पणी १६
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बाद वचनयोग, फिर काययोग और फिर श्वासोच्छ्वास का निरोध करता है। इसके बाद पाँच हृस्वाक्षर के उच्चार करने जितने समय में वह अनगार समुच्छिन्न क्रिया अनिवृत्ति नामक शुक्ल ध्यान को ध्याते हुए वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र-इन चार कर्मों को एक साथ क्षय कर बाद में शुद्ध-बुद्ध होकर समस्त दुःख का अन्त करता है।
स्वामीजी ने प्रस्तुत गाथा में सिद्ध-बुद्ध होने की उपर्युक्त प्रक्रिया में योग-निरोध के क्रम का जो उल्लेख है उसी की ओर संकेत किया है। आगम का मूल पाठ इस प्रकार है :
अह आउयं पालइत्ता अन्तोमुहत्तद्धावसेसाए जोगनिरोहं करेमाणे सुहमकिरियं अप्पडिवाइं सुक्कज्झाणं झायमाणे तप्पढमयाए मणजोगं निरुम्भइ वइजोगं निरुम्भइ कायजोगं निरुम्भइ आणपाणुनिरोहं करेइ ईसि पंचरहस्ससक्खरुच्चारणट्ठाए य णं अणगारे समुच्छिन्नकिरियं अनियट्ठिसुक्कज्झाणं झियायमाणे वेयणिज्जं आउयं नामं गोत्तं च एए चत्तारि कम्मसे जुगवं खवेई ।।
स्वामीजी के कहने का तात्पर्य है कि सयोगी केवली के योग शुद्ध होते हैं। पर मुक्त होने के पूर्व केवली को भी इन शुद्ध योगों का निरोध करना पड़ता है तब कहीं वह सिद्ध-बुद्ध होता है। इस तरह योगास्रव भी संवरणीय है।
१६. प्रश्नव्याकरण और आस्रवद्वार (गा० १९) :
प्रश्नव्याकरण दसवाँ अङ्ग माना जाता है। इस आगम में दो श्रुतस्कंध हैं-एक आस्रवद्वारश्रुतस्कंध और दूसरा संवरद्वारश्रुतस्कंध' । प्रथम श्रुतस्कंध में आस्रव पञ्चक और द्वितीय श्रुतस्कंध में संवर पञ्चक का वर्णन है। इसी सूत्र में एक स्थान पर कहा है-“पाँच का परित्याग करके और पाँच का भावपूर्वक रक्षण करके जीव कर्म-रज से मुक्त होते हैं और सर्वश्रेष्ठ सिद्धि को प्राप्त करते हैं।
संवरों के विषय में कहा गया है-"ये अनास्रव रूप हैं, छिद्र रहित हैं, अपरिस्रावी हैं, संक्लेश से रहित हैं, समस्त तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट हैं : आस्रव ठीक इनसे उल्टे हैं।
१. जंबू दसमस्स अंगस्स समणेणं जाव संपत्तेणं दो सुयक्कखंधा पण्णत्ता-आसवदारा य
संवरदारा य २. पंचेव य उज्झिऊणं पंचेव य रक्खिऊण भावेण।
कम्मरयविपमुक्का सिद्धिवरमणुत्तरं जंति ।। ३. अणासवो अकलुसो अच्छिदो अपरिस्सावी असंकिलिट्ठो सुद्धो सव्वजिणमणुन्तातो।