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आस्त्रव पदार्थ (ढाल : १) : टिप्पणी २०
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__यहाँ अभयदेव सूरि ने आस्रव को मिथ्यादर्शनादि रूप जीव-परिणाम, संवर को निवृत्तिरूप आत्म-परिणाम, देश रूप से कर्मों का दूर होना निर्जरा और सर्व कर्मराहित्य को मोक्ष कहा है।
___ इस तरह अभयदेव सूरि ने आस्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष को जीव पदार्थ में डाला है। पुण्य और पाप को कर्म कहा है। बंध को पुण्य-पाप कर्मात्मक कहा है। कर्म पुद्गल हैं। पुद्गल अजीव है। इस तरह उन्होंने पुण्य, पाप और बन्ध को अजीव पदार्थ में डाला
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है।
उन्होंने नव सद्भाव पदार्थों में से प्रत्येक की जो परिभाषा दी है उससे उनका मन्तव्य और भी स्पष्ट हो जाता है। "जीव सुख-दुख ज्ञानोपयोग लक्षण वाला है | अजीव उससे विपरीत है। पुण्य-शुभ प्रकृति रूप कर्म है। पाप-अशुभ प्रकृति रूप कर्म है। जिससे कर्म ग्रहण हों उसे आस्रव कहते हैं | आस्रव शुभाशुभ कर्म के आने का हेतु है। संवर-गुप्ति आदि से आस्रव का निरोध संवर है। विपाक अथवा तप से कर्म का देशतः क्षपण निर्जरा है। आस्रव द्वारा गृहीत कर्मों का आत्मा के साथ संयोग बंध है। सम्पूर्ण कर्मों के क्षय से आत्मा का आत्म-भाव में अवस्थान मोक्ष है।"
जीव जीव है इसमें सन्देह की बात ही नहीं। अजीव अजीव है इसमें भी सन्देह की बात नहीं। पुण्य और पाप कर्म हैं अतः अजीव हैं । आस्रव को कर्म का हेतु कहा गया है। वह कर्म नहीं उससे भिन्न है, अतः अजीव नहीं जीव है। संवर कर्मों को दूर रखने वाला आत्म-परिणाम है अतः जीव है। निर्जरा देशशुद्धि कारक आत्म-परिणाम है अतः जीव है। मोक्ष विशुद्ध आत्म-स्वरूप है। इस तरह जीव, आस्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष जीवकोटि के हैं तथा अजीव, पुण्य, पाप और बंध अजीव कोटि के।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आस्रव के विषय में तीन मान्यताएँ हैं : १. आस्रव अजीव हैं। २. आस्रव जीव-अजीव का परिणाम है। ३. आस्रव जीव है।
१. ठाणाङ्ग ६.३.६६५ टीका :
जीवाः सुखदुःखज्ञानोपयोगलक्षणाः, अजीवास्तद्विपरिताः, पुन्यं-शुभप्रकृतिरूपं कर्म पापं-तद्विपरीतं कर्मैव आश्रूयते-गृह्यते कर्मानेनेत्याश्रवः शुभाशुभकर्मादान हेतुरितिभावः, संवरः-आश्रवनिरोधो गुप्त्यादिभिः, निर्जरा विपाकात् तपसा वा कर्मणां देशतः क्षपणा, बन्धः आश्रवैरात्तस्य कर्मण आत्मना संयोगः, मोक्षः कृत्स्नकर्मक्षयादात्मनः स्वात्मन्यवस्थानमिति।