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नव पदार्थ
जो सर्व भूतों को अपनी आत्मा के समान समझता है, जो सर्व जीव को समभाव से देखता है, जो आस्रवों को रोक चुका और जो दान्त है उसके पाप कर्मों का बन्ध नहीं होता ।
दशवैकालिक सूत्र के तीसरे अध्ययन की संकेतित गाथा इस (११) प्रकार है : पंचासवपरिन्नाया तिगुत्ता छसु संजया । पंचनिग्गहणाधीरा निग्गन्था उज्जुदंसिणो ।।
जो पञ्चास्रव को जानकर त्याग करने वाले होते हैं, जो त्रिगुप्त हैं, षट्काय के जीवों के प्रति संयत हैं, पांच इन्द्रिय का निग्रह करने वाले हैं, जो धीर हैं और ऋजुदर्शिन हैं वे निर्ग्रन्थ हैं ।
यहाँ पर आस्रव-रहित श्रमणों को निर्ग्रन्थ कहा है।
१४. पंचास्रवसंवृत भिक्षु महा अनगार ( गा० १७) :
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स्वामीजी ने यहाँ दशवैकालिक अ० १० गा० ५ की ओर संकेत किया है । वह गाथा इस प्रकार है :
रोइयनायपुत्तवण
अप्पसमे मन्नेज्ज छप्पि काए ।
पञ्च य फासे महव्वयाडं
पञ्चासवसंवरए जे स. भिक्खू ।।
जो ज्ञातृपुत्र महावीर के वचन में रुचि कर छः ही काय के जीव को आत्म-सम मानता है, पंच महाव्रतों का सम्यक् रूप से पालन करता है तथा पञ्चास्रवों को संवृत करता है वह भिक्षु है ।
यहाँ पञ्चास्रवों को निरोध करने वाला महा भिक्षु कहा गया है। आस्रवों का संवरण भिक्षु का महान गुण है ।
१५. मुक्ति के पहले योगों का निरोध ( गा० १८ ) :
उत्तराध्ययन अ० २६.७२ में कहा है
"चारों घरघाति कर्मों के क्षय के बाद सयोगी अवस्था में केवली केवल ईर्यापथिकी क्रिया का बंध करता है । फिर अवशेष रहे हुए आयुकर्म को भोगते हुए जब अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आयु शेष रह जाती है तब योगों का निरोध करते हुए सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति नाम शुक्लध्यान के तीसरे पाद का ध्यान ध्याते हुए प्रथम मनोयोग का निरोध करता है। इसके