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१७. आस्रव-प्रतिक्रमण ( गा० २० ) :
यहाँ ठाणाङ्ग के जिस पाठ का संदर्भ है वह इस प्रकार है : "पंचविहे पडिक्कमणे पं० तं० - आसवदारपडिक्कमणे मिच्छत्तपडिक्कमणे कसायपडिक्कमणे जोगपडिक्कमणे भावपडिक्कमणे' ।" (५.३.४६७)
प्रतिक्रमण पांच प्रकार के कहे हैं- (१) आस्रवद्वार प्रतिक्रमण, (२) मिथ्यात्व प्रतिक्रमण, (३) कषाय प्रतिक्रमण, (४) योग प्रतिक्रमण और (५) भाव प्रतिक्रमण । प्रमादवश स्वस्थान से परस्थान चले जाने पर पुनः स्वस्थान को आना प्रतिक्रमण कहलाता है। शुभ योग से अशुभ योग में चले जाने पर पुनः शुभ में जाना प्रतिक्रमण है । प्राणातिपातादि आस्रवद्वारों से निवर्तन को आस्रवद्वार प्रतिक्रमण कहते हैं । इसका मर्म है - असंयम से प्रतिक्रमण। इसी प्रकार मिथ्यात्वगमन से निवृत्ति को मिथ्यात्व प्रतिक्रमण कहते हैं । इसी तरह कषाय प्रतिक्रमण है । मन-वचन-काय के अशोभन व्यापारों का व्यावर्त्तन योग प्रतिक्रमण है । आस्रवादि प्रतिक्रमण ही अविशेष विवक्षा से भाव प्रतिक्रमण है । मन-वचन-काय से मिथ्यात्वादि में गमन न करना, दूसरे को गमन न कराना, गमन करते हुए का अनुमोदन न करना भाव प्रतिक्रमण है ।
१. मिलायें :
मिच्छत्तपडिक्कमणं तहेव अस्संजमे पडिक्कमणं । कसायाण पडिक्कमणं जोगाण य अपप्पसत्थाणं ।। २. (क ) ठाणाङ्ग ५-३.४६७ टीका :
नव पदार्थ
स्वस्थानाद्यत्परस्थानं, प्रमादस्य वशाद्गतः । तत्रैव क्रमणं भूयः, प्रतिक्रमणमुच्यते ।। (ख) ठाणाङ्ग ५.३.४६७ टीका :
क्षायोपशमिकादावादौदयिकस्य वशं गतः ।
तत्रापि च स एवार्थः, प्रतिकूलगमात् स्मृतः।
३. वही
आश्रवद्वाराणि-प्राणातिपातादीनि तेभ्यः प्रतिक्रमणं - निवर्त्तनं पुनरकरणमित्यर्थः आश्रवद्वार- प्रतिक्रमणं, असंथमप्रतिक्रमणमिति हृदयं
४. वही : मिथ्यात्वप्रतिक्रमणं यदाभोगानाभोगसहसाकारैर्मिथ्यात्वगमनं तन्निवृत्तिः
५. वही योगप्रतिक्रमणं तु यत् मनोवचनकायव्यापाराणामशोभनानां व्यावर्त्तनमितिः
६.
वही : आश्रवद्वारादिप्रतिक्रमणमेवाविवक्षितविशेषं भावप्रतिक्रमणमिति, आह च मिच्छताइ न गच्छइ न य गच्छावेइ नाणुजाणाइ ।
जं मणवइकाएहिं तं भणियं भावपडिकमणं । ।