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आस्त्रव पदार्थ (दाल : १) : टिप्पणी ८६
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८. आस्रव कर्मों का कर्ता, हेतु, उपाय है (गा० ११)
स्वामीजी ने ढाल की पहली गाथा में स्थानाङ्ग में पाँच आस्रवद्वार कहे हैं"-ऐसा उल्लेख करते हुए गा० २ से ८ में इन पाँचों द्वारों के नाम और उनके स्वरूप पर प्रकाश डाला है। वहाँ आस्रव के प्रतिपक्षी संवर पदार्थ के स्वरूप पर भी कुछ विवेचन है जिससे कि आस्रव पदार्थ का स्वभाव स्पष्ट रूप से हृदयांकित हो सके। फिर गा० ६-१० में पाँच आस्रव और संवर के सामान्य स्वरूप का बोध दिया है। स्वामीजी कहते हैं : "ठाणाङ्ग की तरह चौथे अङ्ग समवायाङ्ग में भी पाँच आस्रव द्वार और पाँच संवर कहे गये हैं।" वह पाठ इस प्रकार है :
"पंच आसवदारा पन्नत्ता, तंजहा–मिच्छत्तं अविरई पमाया कसाया जोगा पंच संवरदारा पन्नत्ता, तंजहा-सम्मत्तं विरई अप्पमत्तया अकसाया अजोगया (सम० ५)।
स्वामीजी कहते हैं-"आस्रव का जहाँ भी विवेचन है उस स्थल को देखने से यह स्पष्ट होता है कि वह कर्मों के आने का द्वार, हेतु, उपाय, निमित्त है। आस्रव महा विकराल द्वार है क्योंकि कर्म जैसा कोई रिपु नहीं। आस्रव उसके लिए सदा उन्मुक्त द्वार है। ९. प्रतिक्रमण विषयक प्रश्न और आस्रव (गा० १२) :
स्वामीजी ने गा० ११ में आस्रव को कर्मों का कर्ता, हेतु, उपाय कहा है। आस्रव का स्वरूप ऐसा ही है अन्यथा नहीं इस तथ्य को हृदयङ्गम कराने के लिए स्वामीजी ने गा० १२ से २२ में आगमों के कई स्थलों का संदर्भ दिया है। आस्रव द्वार रूप, छिद्र रूप है यह आगम के उल्लिखित संदर्भो से भली भाँति स्पष्ट होता है।
पहला संदर्भ उत्तराध्ययन के २६वें अध्ययन का है। मूल पाठ इस प्रकार है : “पडिक्कमणेणं भन्ते जीवे किं जणयइ ।। प० वयछिद्दाणि पिहेइ। पिहियवयछिद्दे पुण जीवे निरुद्धासवे असबलचरित्ते अट्ठसु पवयणमायासु उवउत्ते अपुहत्ते सुप्पणिहिंदिए विहरइ ।।११।। “हे भंते ! प्रतिक्रमण से जीव किस फल को उत्पन्न करता है ?"
"हे शिष्य ! प्रतिक्रमण से जीव व्रतों के छिद्रों को ढकता है। जिस जीव के व्रतों के छिद्र ढक जाते हैं वह निरुद्धास्रव होता है, असबल चारित्र होता है, आठ प्रवचन-माताओं