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नव पदार्थ
अशुभ नामकर्म के १४ अनुभाव-विपाक शुभनामकर्म के अनुभावों से ठीक उलटे हैं | वे इस प्रकार हैं-(१) अनिष्ट शब्द, (२) अनिष्ट रूप, (३) अनिष्ट गंध (४) अनिष्ट रस, (५) अनिष्ट स्पर्श, (६) अनिष्ट गति, (७) अनिष्ट स्थिति, (८) अनिष्ट लावण्य, (६) अनिष्ट यशकीर्ति, (१०) अनिष्ट बल, वीर्य, पुरुषकार-पराक्रम (११) अनिष्ट स्वरता (१२) हीनस्वरता, (१३) दीनस्वरता और (१४) अकान्तस्वरता'।
अशुभनामकर्म के बंध-हेतु शुभनामकर्म के बंध-हेतुओं से ठीक विपरीत हैं। इनका विवेचन पहले किया जा चुका है (देखिए पृ० २२७ टि० २१)। प्रथम कर्मग्रन्थ में लिखा है-“सरल और गौरव-रहित जीव शुभनामकर्म का बंध करता है और अन्यथा अशुभनामकर्म का।" गौरव तीन प्रकार का है (१) ऋद्धि-गौरव (२) रस-गौरव और (३) सात-गौरव । धन सम्पत्ति से अपने को बड़ा समझना ऋद्धि-गौरव है। रसों से अपना गौरव समझना रस-गौरव है। आरोग्य, सुख आदि का गर्व सात-गौरव है। इस तरह यहाँ कपट भाव और तीन गौरव से अशुभनामकर्म का बंध बतलाया है।
तत्त्वार्थसूत्र में अशुभ नामकर्म के बंध हेतुओं के विषय में निम्न सूत्र प्राप्त है-'योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः' । योगवक्रता का अर्थ है-'कायावाङ्मनोयोगवक्रता' (भाष्य)। यहाँ गौरव के स्थान में 'विसंवादन' है। श्री हेमचन्द्र सूरि कहते हैं : "योगवक्रता, ठगना, माया-प्रयोग, मिथ्यात्व, पैशुन्य, चलचित्तता, नकली सुवर्णादि का बनाना, झूठी साक्षी, वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श को अन्यथा करना, अंगोपांग को गलवाना, यंत्रकर्म, पिंजरकर्म, कूट माप-तौल, कूटकर्म, अन्यनिन्दा, आत्मप्रशंसा, हिंसा आदि पाँच पाप, कठोर असभ्य वचन, मद, वाचालता, आक्रोश, सौभाग्य-उपघात, कामणक्रिया, परकौतूहल, परिहास, वेश्यादि को अलङ्कार-दान, दावाग्निदीपन, देवपूजादि के बहाने गंधादि को चुराना, तीव्र कषाय, चैत्य-आराम और प्रतिमाओं का विनाश और अङ्गरादि व्यापार-ये सब अशुभ नामकर्म के आश्रव हैं।" अशुभ नामकर्म के बंध-हेतुओं का यह प्रतिपादन निश्चय ही बाद का परिवर्धित रूप है। आगमिक और इन बंध-हेतुओं में जो अन्तर है वह तुलना से स्वयं स्पष्ट होगा।
१. प्रज्ञापना २३.१ २. प्रथम कर्मग्रन्थ ५६ :
सरलो अगारविल्लो सुहनामं अन्नहा असुहं ।। ३. नवतत्त्वसाहित्यसग्रहः सप्ततत्त्वप्रकरणम् : ६४-१००