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आस्त्रव पदार्थ (ढाल: १): टिप्पणी १
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आस्रव-द्वार शब्द मिलता है। अन्य आगमों में भी यह शब्द पाया जाता है। स्वामीजी कहते हैं-"आस्रव-द्वार शब्द आस्रव पदार्थ का ही द्योतक और उसका पर्यायवाची है। आस्रव पदार्थ अर्थात् वह पदार्थ जो आत्म-प्रदेशों में कर्मों के आने का द्वार हो-प्रवेश-मार्ग हो।"
(३) आस्रव कर्म आने का द्वार है : जिस तरह कूप में जल आने का मार्ग उसके अन्तः स्रोत होते हैं, नौका में जल-प्रवेश के निमित्त उसके छिद्र होते हैं और मकान में प्रवेश करने का साधन उसका द्वार होता है उसी तरह जीव के प्रदेशों में कर्म के आगमन का मार्ग आस्रव पदार्थ है। कर्मों के प्रवेश का हेतु-उपाय--साधन-निमित्त होने से आस्रव पदार्थ को आस्रव-द्वार कहा जाता है।
(४) आस्रव और कर्म भिन्न-भिन्न हैं-एक नहीं : जिस तरह छिद्र और उससे प्रविष्ट होनेवाला जल एक नहीं होता, जिस तरह द्वार और उससे प्रविष्ट होनेवाले प्राणी पृथक्-पृथक् होते हैं वैसे ही आस्रव और कर्म एक नहीं पृथक-पृथक हैं। आस्रव कर्मागमन का हेतु है। और जो आगमन करते-आते हैं वे जड़ कर्म हैं। कर्म इसलिए कर्म है कि वह जीव द्वारा मिथ्यात्वादि हेतुओं से किया जाता है। हेतु इसलिए हेतु हैं कि इनसे जीव कर्मों को करता है उन्हें आत्म-प्रदेशों में ग्रहण करता है । आस्रव साधन हैं और कर्म कार्य । आस्रव जीव के परिणाम या उसकी क्रियाएँ हैं और कर्म उसके फल | श्री हेमचन्द्र सूरि लिखते हैं : “जो कर्म-पुद्गलों के ग्रहण का हेतु है वह आस्रव कहा जाता है। जो ग्रहण होते हैं वे ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्म हैं । (इस विषय के विस्तृत विवेचन के लिए देखिए पृ० २६२-२६६)
१. (क) ठाणाङ्ग ५.२.४१८
(ख) समवायाङ्ग सम० ५ २. (क) प्रश्नव्याकरण प्र० श्रु०
(ख) उत्त० २६.१३ ३. समवायाङ्ग सम० ५ टीका :
आस्रवद्वाराणि-कर्मोपदानोपाया......संवरस्य कर्मानुपादानस्य द्वाराणि उपायाः संवरद्वाराणि ४. प्रथम कर्मग्रन्थ १:
कीरइ जिएण हेउहि, जेणं तो भण्णए कम्म ५. नवतत्त्वसाहित्यसंग्रहः सप्ततत्त्वप्रकरणम् गा० ६२ :
यः कर्मपुद्गलादानहेतुः प्रोक्तः स आश्रवः । कर्माणि चाष्टधा ज्ञानावरणीयादि भेदतः।। ,