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आस्त्रव पदार्थ (दाल : १) : टिप्पणी ६
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आस्रव (१२) चक्षुरिन्द्रिय आस्रव (१३) घ्राणेन्द्रिय आस्रव (१४) रसनेन्द्रिय आस्रव (१५) स्पर्शनेन्द्रिय आस्रव (१६) मन आस्रव (१७) वचन आस्रव (१८) काय आस्रव (१६) भण्डोपकरण आस्रव और (२०) शुचिकुशाग्र मात्र का सेवनास्रव ।
४. स्वामीजी कहते हैं आस्रव पांच हैं : (१) मिथ्यात्व आस्रव (२) अविरति आस्रव (३) प्रमाद आस्रव (४) कषाय आस्रव और (५) योग आस्रव
इस कथन के लिए स्वामीजी ठाणाङ्ग का प्रमाण देते हैं। ठाणाङ्ग का पाठ इस प्रकार है : “पंच आसवदारा प० तं मिच्छत्तं अविरई पमाओ कसाया जोगा। स्वामीजी का कथन समवायांग से भी समर्थित है। वहाँ भी ऐसा ही पाठ-"पंच आसवदारा पन्नता, तंजहा–मिच्छत्तं अविरई पमाया कसाय जोगा।
आगम के अनुसार स्वामीजी ने जिन मिथ्यात्व आदि को आस्रव कहा है, उन्हीं को उमास्वाति ने बंध-हेतु कहा है : “मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः (८.१)।
६. आस्रवों की परिभाषा (गा० ३-८) :
___ इन गाथाओं में स्वामीजी ने पांच आस्रवों की परिभाषा दी है और साथ ही संक्षेप में प्रत्येक आस्रव के प्रतिपक्षी संवर का स्वरूप भी बतलाया है। पाँचों आस्रवों की व्याख्या क्रमशः इस प्रकार है :
१. मिथ्यात्व आस्रव : उल्टी श्रद्धा को मिथ्यात्व कहते हैं। (१) अधर्म को धर्म समझना; (२) धर्म को अधर्म समझना; (३) कुमार्ग को सुमार्ग समझना; (४) सन्मार्ग को कुमार्ग समझना; (५) अजीव को जीव समझना; (६) जीव को अजीव समझना; (७) असाधु को साधु समझना; (८) साधु को असाधु समझना; (६) अमूर्त को मूर्त समझना और (१०) मूर्त को अमूर्त समझना-ये दस मिथ्यात्व हैं।
अन्य आगम में कहा है-"ऐसी संज्ञा मत करो कि लोक-अलोक; जीव-अजीव; धर्म-अधर्म; बन्ध-मोक्ष; पुण्य-पाप; आश्रव-संवर; वेदना-निर्जरा; क्रिया-अक्रिया;
१. ठाणाङ्ग १०.१.७३४