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आस्त्रव पदार्थ (ढाल : १) : टिप्पणी ६
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२१. समादानक्रिया आस्रव : संयत का अविरति या असंयम के सन्मुख होना।
अपूर्व-अपूर्व विरति को छोड़ कर तपस्वी का सावध कार्य में प्रवृत्त होना। २२. ईर्यापथक्रिया आस्रव : ईर्यापथ कर्मबन्ध की कारणभूत क्रिया। २३. प्रादोषिकीक्रिया आस्रव : क्रोध के आवेश से होनेवाली क्रिया। २४. कायिकीक्रिया आस्रव : दुष्टभाव से युक्त होकर उद्यम करना। २५. आधिकरणिकीक्रिया आस्रव : हिंसा के उपकरणों को ग्रहण करना। २६. पारितापिकीक्रिया आस्रव : दुःखोत्पन्न कारी क्रिया। २७. प्राणातिपातिकीक्रिया आस्रव : आयु, इन्द्रिय, बल और श्वासोच्छवास रूप
प्राणों का वियोग करने वाली क्रिया। २८. दर्शनक्रिया आस्रव : रागार्द्र हो प्रमाद-वश रमणीय रूप देखने की इच्छा। २६. स्पर्शनक्रिया आस्रव : स्पर्श करने योग्य सचेतन-अचेतन वस्तु के स्पर्श का
अनुबन्ध-अभिलाषा। १. ठाणाङ्ग ५.२.४१६ में इसके स्थान पर 'समुदाणकिरिया-समुदानक्रिया का उल्लेख है।
टीका में इसका अर्थ क्रिया है 'कर्मोपादानम्' अर्थात् तीन प्रकार के योग द्वारा आठ
प्रकार के कर्मपुद्गलों को ग्रहण करने रूप क्रिया। २. ठाणाङ्ग २.६० में इसके स्थान में 'प्राद्वेषिकी क्रिया है। टीका-प्रद्वेषो-मत्स रस्तेन निर्वृत्ता
प्राद्वेषिकी। जीव अथवा ठोकर आदि लगने से अजीव पाषाणादि के प्रति क्रोध का होना। ३. ठाणाङ्ग में इस क्रिया के दो भेद मिलते हैं (१) अनुपरतकायक्रिया-सावद्य से अविरत
मिथ्यादृष्टि व सम्यग्दृष्टि की कायक्रिया। (२) दुष्प्रयुक्तकायक्रिया-दुष्प्रयुक्त मन, वचन,
काय की क्रिया (ठा० २.६० और टीका) ४. अधिकरण का अर्थ है अनुष्ठान अथवा बाह्यवस्तु खड्ग आदि। तत्सम्बन्धी क्रिया
आधिकरणिकीक्रिया। आगम में इसके दो भेद मिलते हैं-निवर्त्तना-नये अस्त्र-शस्त्रों का
बनाना और संयोजना-शस्त्रों के अङ्गों की संयोजना करना (ठाणाङ्ग ५.२.४१६ और टीका) ५. आगम में इसके दो भेद बताये गये हैं-(१) स्वहस्तपारितापनिकी-अपने हाथ से अपने
या दूसरे को परिताप देना। और (२) परहस्तपारितापनिकी-दूसरे से परिताप पहुंचाना
(ठाणाङ्ग २.६० और टीका)। ६. आगम में इसका नाम 'दिट्ठिया'-दृष्टिकी मिलता है। अश्व आदि सजीव और चित्रकर्म
आदि निर्जीव वस्तु देखने के लिए गमन आदि रूप क्रिया (ठाणाङ्ग ५.२.४१६ और टीका)। ७. आगम में 'पुट्ठिया'-पृष्टिका, स्पृष्टिका नाम मिलता है। अर्थ है रागादि से स्पर्श या प्रश्न
करने रूप क्रिया (ठाणाङ्ग २.६०; ५.२.४१६)।