________________
आस्त्रव पदार्थ ( ढाल : १)
1
६६. - दर्शन मोह के उदय से जीव विपरीत श्रद्धा करता है उसके सच्चा मार्ग हाथ नहीं आता । विपरीत श्रद्धा करने वाला ही मिथ्यात्व आस्रव-द्वार है ४ ३ |
६७. मूर्ख आस्रव को रूपी कहते हैं। भगवान वीर ने आस्रव को अरूपी कहा है। सूत्रों में जगह-जगह आस्रव को अरूपी कहा है।
६८.
६६.
७०.
७२.
पाँच आस्रव और अव्रत को अशुभ लेश्या का परिणाम कहा है। अशुभ लेश्या अरूपी है। उसके लक्षण रूपी किस तरह होंगे ?
७३.
मोह कर्म के संयोग-वियोग से योग क्रमशः उज्ज्वल या मैले कहे गये हैं। मोह कर्म के संयोग से उज्ज्वल योग मलिन हो जाते हैं। कर्मों की निर्जरा से अशुभ योग उज्ज्वल हो जाते हैं ।
७१. साधुओं के गुणों को शुद्ध मानो । उनको भगवान ने अरूपी कहा है। जिसने योग आस्रव को रूपी स्थापित किया है। उसने वीर के वचनों को उत्थापित किया है।
उत्तराध्ययन सूत्र के २६ वें अध्ययन में जिन भगवान ने 'योग सत्य' का उल्लेख किया है । 'योग सत्य' निर्दोष है। उसको साधुओं के गुणों के अन्तर्गत किया है।
1
भावयोग वीर्य का ही व्यापार है इसलिए अरूपी है। स्थानाङ्ग सूत्र के तृतीय स्थानक में ऐसा कहा है। उसे जो रूपी श्रद्धता है उसकी श्रद्धा अयथार्थ है ।
योग आत्मा जीव है। अरूपी है। उन योगों को मूढ रूपी कहते हैं। योग जीव के परिणाम हैं और परिणाम निश्चय ही अरूपी हैं ४४ ।
मिथ्यात्व का
कारण दर्शन मोहनीय कर्म
आस्रव अरूपी
३६५
अशुभ लेश्या के परिणाम रूपी नहीं
हो सकते
मोहकर्म के संयोगवियोग से कर्म उज्ज्वल मलिन
योग सत्य
योग आस्रव अरूपी है
(गा० ७१-७३)