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नव पदार्थ
१. जाति-उच्चगोत्र : जाति-मातृपक्षीय १. जाति-नीचगोत्र : जातिविहीनताविशिष्टता
मातृपक्षीय-विशिष्टता का अभाव २. कुल-उच्चगोत्र : कुल-पितृपक्षीय । २. कुल-नीचगोत्र : कुलविहीनता विशिष्टता
पितृपक्षीय-विशिष्टता का अभाव ३. बल-उच्चगोत्र : बल-विषयक विशिष्टता ३. बल-नीचगोत्र : बलविहीनता ४. रूप-उच्चगोत्र : रूप-विषयक विशिष्टता ४. रूप-नीचगोत्र : रूपविहीनता ५. तप-उच्चगोत्र : तप-विषयक विशिष्टता ५. तप-नीचगोत्र : तपविहीनता ६. श्रुत-उच्चगोत्र : श्रुत-विषयक विशिष्टता ६. श्रुत-नीचगोत्र : श्रुतविहीनता ७. लाभ-उच्चगोत्र : लाभ-विषयक विशिष्टता ७. लाभ-नीचगोत्र : लाभविहीनता
विशिष्टता ८. ऐश्वर्य-उच्चगोत्र : ऐश्वर्य-विषयक ८. ऐश्वर्य-नीचगोत्र : ऐश्वर्यविहीनता विशिष्टता
इससे यह स्पष्ट है कि जीव की व्यक्तित्व-विषयक विशिष्टता अथवा अविशिष्टता का निमित्त कर्म गोत्रकर्म है।
उच्चगोत्रकर्म पुण्य रूप है और नीचगोत्रकर्म पाप रूप।
जाति-विशिष्टता, कुल-विशिष्टता यावत् ऐश्वर्य-विशिष्टता उच्चगोत्रकर्म के विपाक हैं। ये आठ मद स्थान हैं'। अहंभाव के कारण हैं। जो इनको पाकर अभिमान करता है उसके नीचगोत्रकर्म का बध होता है। जो अभिमान नहीं करता उसको पुनः ये ही विशिष्टताएँ प्राप्त होती हैं। जो अनात्मवादी होता है उसके लिए जाति आदि की विशिष्टताएँ अहित की कर्ता हैं। जो आत्मार्थो होता है उसके लिये ये ही हितकर्ता के रूप में परिणत हो जाती हैं।
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१. ठाणाङ्ग ८.६.६०६ २. वही ६.३.७०१ ३. भगवती ८.६
मूल पाठ पृ० २२८ पर उद्धृत है ४. ठाणाङ्ग ६.३.४६६