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पाप पदार्थ : टिप्पणी १२
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१२. नीचगोत्रकर्म (गा० ५७) :
पूज्यता, अपूज्यता आदि भावों को उत्पन्न करनेवाले कर्म को गोत्रकर्म कहते हैं। इसकी तुलना कुम्हार से की गई है। जैसे कुम्हार लोक-पूज्य कलश और लोकनिन्द्य मद्य-घट का निर्माण करता है वैसे ही यह कर्म जीव के व्यक्तित्व को श्लाघ्य-अश्लाघ्य बनाता है। जिस कर्म के उदय से जीव उच्चावच कहलाता है वह गोत्रकर्म है।
दिगम्बर आचार्य पूज्यपाद ने इसकी परिभाषा इस रूप में दी है-"जिसके उदय से गर्हित कुलों में जन्म होता है वह नीचगोत्रकर्म है।"
गोत्रकर्म की यह परिभाषा ऐकांतिक है। तत्त्वार्थकार के स्वोपज्ञ भाष्य में इसका स्वरूप इस प्रकार मिलता है : “उच्चगोत्रकर्म देश, जाति, कुल, स्थान मान, सत्कार, ऐश्वर्य आदि विषयक उत्कर्ष का निवर्तक होता है। इसके विपरीत नीचगोत्र कर्म चाण्डाल, नट, व्याध, पारिधि, मत्स्यबंध-धीवर, दास्यादि भावों का निर्वर्तक है।
उच्च ओर नीचगोत्रकर्म के उपभेद और उनके अनुभावों का आगम में इस प्रकार उल्लेख है :
१. (क) ठाणाङ्ग २.४.१०५ टीका :
जह कुंभारो भंडाई कुणइ पुज्जेयराइं लोयस्स।
इय गोयं कुणइ जियं लोए पुज्जेयरावत्थं ।। (ख) प्रथम कर्मग्रन्थ ५२ :
___ गोयं दुहुच्चनीयं कुलाल इव सुघडभुंभलाईयं । २. प्रज्ञापना २३.१.२८८ टीका :
यद्वा कर्मणोऽपादानविवक्षा गूयते-शब्द्यते उच्चावचैः शब्दैरात्मा यस्मात् कर्मणः उदयात्
गोत्रं। ३. तत्त्वा० ८.१२ सर्वार्थसिद्धि :
यस्योदयाल्लोकपूजितेषु कुलेषु जन्म तदुच्चैर्गोत्रम्। यदुदयाद्गर्हितेषु कुलेषु जन्म
तन्नीचैर्गोत्रम् ; ४. तत्त्वा० ८.१३ भाष्य :
उच्चैर्गोत्रं देशाजातिकुलस्थानमानसतकारैश्वर्याधुत्कर्षनिर्वर्तकम्। विरीतं नीचैर्गोत्रम
चण्डालमुष्टिकव्याधमत्स्यबंधदास्यादिनिर्वर्तकम् । ५. प्रज्ञापना २३.१.२६२; २३.२.२६३