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पुण्य और पाप पदार्थ के विवेचन में कर्मों की मूल प्रकृतियों, उनकी उत्तरप्रकृतियों और उपभेदों का वर्णन आ चुका है। पाठकों की सुविधा के लिए नीचे उन्हें चुम्बक रूप से दिया जा रहा है :
मूल प्रकृतियाँ
उत्तर प्रकृतियाँ
१. ज्ञानावरणीय
२. दर्शनावरणीय
३. वेदनीय
४. मोहनीय
५. आयुष्य
६. नाम
७. गोत्र
८. अन्तराय
३.
६
४.
२
२८.
४
४२
२
५. वही ७ :
५
६७३
पाप प्रकृतियाँ
(साधारणतः मान्य)
पुण्य प्रकृतियाँ (साधारणतः मान्य)
५
६
१ (सात)
२६
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१ ( नरकायुष्य ) ३ ( देव, मनुष्य, तिर्यञ्च )
३४
३७
१ (नीच)
१ (उच्च)
५
नव पदार्थ
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८२
४२५
मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियों में से सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वमोहनीय को पाप प्रकृतियों में नहीं लिया है। इसका कारण यह है कि जीव इनका स्वतन्त्र रूप से बंध नहीं करता । मिथ्यात्वमोहनीय की क्षीणता से ये उत्पन्न होती हैं। ये प्रकृतियाँ जीव के सत्ता रूप से विद्यमान रहती हैं पर उनका स्वतंत्र बंध न होने से इनको पाप प्रकृतियों में नहीं गिना है ।
नवतत्त्वसाहित्ससंग्रह : देवगुप्तसूरिप्रणीत नवतत्त्वप्रकरण गा० ८ :
नाणंतरायदसगं दंसणनव मोहपयइछव्वीसं । नामस्स चउत्तीस, तिहन एक्केक पावाओ ।।
सायं उच्चागोयं, सत्तत्तीसं तु नामपगईओ । तिन्निं य आऊणि तहा, बायालं पुन्नपगईओ । ।
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१. तत्त्वार्थसूत्र का मतभेद बताया जा चुका है पृ० ३३६
२. प्रज्ञापना २३.१
कत्तिणं भंते ! कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा अट्ठ कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ
समवायाङ्ग सम० ६७ :
अहं कम्मपगडीणं सत्ताणउइ उत्तरपगडीओ पन्नत्ताओ
१ (असात)
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