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पाप पदार्थ : टिप्पणी ११
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शरीर हो उसे 'साधारणशरीरनामकर्म' कहते हैं। आलू, अदरक आदि इसी कर्म के उदय वाले जीव हैं।
(२६) अस्थिरनाम : जिसके उदय से जिह्मा, कान, भौंह आदि अस्थिर अवयव हों उसे 'अस्थिरनामकर्म' कहते हैं।
(३०) अशुभनाम : जिस कर्म के उदय से नाभि के नीचे के अवयव अशुभ-अप्रशस्त होते हैं उसे 'अशुभनामकर्म' कहते हैं।
(३१) दुर्भगनाम : जिस कर्म के उदय से उपकार करने पर भी मनुष्य अप्रिय हो उसे 'दुर्भगनामकर्म' कहते हैं।
(३२) दुःस्वरनाम : जिस कर्म के उदय से अप्रिय लगे ऐसा खराब स्वर हो उसे 'दुःस्वरनामकर्म' कहते हैं।
(३३) अनादेयनाम : जिस कर्म के उदय से वचन लोकमान्य न हो उसे 'अनादेयनामकर्म कहते हैं। ,
(३४) अयशकीर्त्तिनाम : जिस कर्म के उदय से अपयश या अपकीर्ति हो उसे 'अयशकीर्त्तिनामकर्म' कहते हैं।
___नामकर्म की पूर्वोक्त ४२ प्रकृतियों में बंधन और संघात प्रकृतियों के जो पाँच-पाँच भेद हैं (देखिए पृ० ३३४-५) उन्हें भी पुण्य और पाप में विभक्त किया जा सकता है। स्वामीजी ने गा० ४६ में कहा है-“इनमें से शुभ बंधन और संघात पुण्यरूप हैं। और अशुभ पापरूप।"
'नवतत्त्वप्रकरण' में तिर्यञ्चगति और तिर्यञ्चानुपूर्वी की गिनती पाप प्रकृतियों में की गयी है और तिर्यञ्चायुष्य की गणना पुण्य प्रकृतियों में'। इसका कारण यह माना जाता है कि तिर्यञ्चायुष्य के उदय के बाद तिर्यञ्चगति और तिर्यञ्चानुपूर्वी जीव को अनिष्ट अथवा दुःखरूप नहीं लगतीं । तत्त्वार्थभाष्य में नरायुष्य और देवायुष्य को ही पुण्य प्रकृतियों में गिना है अतः तिर्यञ्चायुष्य स्पष्टतः पाप प्रकृतियों में आती है। स्वामीजी कहते हैं : “कई तिर्यञ्चों का आयुष्य पाप प्रकृति रूप होता है। जिस तिर्यञ्च का आयुष्य अशुभ है उसकी गति और आनुपी भी अशुभ है। जिस तिर्यञ्च का आयुष्य शुभ है उसकी गति और आनूपूर्वी भी शुभ है (गा० ४६)।"
१, नवतत्त्वप्रकरण गा० १४.१२ २. तत्त्वा० ५.२६ भाष्य : शुभमायुष्कं मानुषं दैवं च