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नव पदार्थ
पदार्थ इष्ट या अनिष्ट नहीं होते। इष्ट-अनिष्ट का भाव अज्ञान और मोह से उत्पन्न । होता है-राग द्वेष से उत्पन्न होता है। अनुकूल विषयों के न मिलने से तथा प्रतिकूल विषयों के संयोग से जो दुःख होता है वह असाता वेदनीय कर्म के उदय का परिणाम है। उसके फल स्वरूप अनेक प्रकार के शारीरिक और मानसिक दुःखों का अनुभव होता
है।
असाता वेदनीय कर्म आठ प्रकार के हैं । (१) अमनोज्ञ शब्द, (२) अमनोज्ञ रूप, (३) अमनोज्ञ स्पर्श, (४) अमनोज्ञ गंध, (५) अमनोज्ञ रस, (६) मन दुःखता, (७) वाग् दुःखता और (८) काय दुःखता। __ असाता वेदनीय के अनुभाव इन्हीं आठ भेदों के अनुसार तद्रूप आठ हैं।
अमनोज्ञ शब्द, रूप, गंध, स्पर्श और इनसे होने वाला दुःख तथा मानसिक, वाचिक, और कायिक दुःखता असाता वेदनीय कर्म के उदय का परिणाम है।
असाता वेदनीय कर्म के बंध-हेतुओं का उल्लेख पूर्व में किया जा चुका है।
एक बार श्रमण भगवान् महावीर ने गौतमादि श्रमणों को बुलाकर पूछा : "श्रमणो ! जीव को किसका भय है ?
श्रमण बोले : "भगवन् ! हम नहीं जानते। आप ही हमें बतावें ?" भगवान ने उत्तर दिया : "श्रमणो ! जीवों को दुःख का भय है।" श्रमण बोले : “भगवन् ! यह दुःख किसने किया ?" भगवान बोले : “जीव ने ही यह दुःख अपने प्रमाद से उत्पन्न किया है।
१. तत्त्वा० ८.८ : सर्वार्थसिद्धि : यदुदयाद्देवादिगतिषु शरीरमानससुखप्राप्तिस्तत्सवदेद्यम्।
प्रशस्तं वेद्यं सदेद्यमिति। यत्फलं दुःखमनेकविधं तदसवदेद्यम् ।
अप्रशस्तं वेद्यमसद्वेद्यमिति। २. प्रज्ञापना २३. ३. १५ :
असायावेदणिज्जे णं भंते ! कम्मे कतिविधे पन्नत्ते ? गोयमा ! अट्ठविधे पन्नत्ते,
तंजहा-अमणुण्णा सद्दा, जाव कायदुहया। ३. प्रज्ञापना २३. ३. ८ :
असातावेयणिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स जीवेणं तहेव पुच्छा उत्तरं च, नवरं अमुणण्णा सद्दा जाव कायदुहया. एस णं गोयमा ! असायावेयणिज्जे कम्मे, एस णं गोयमा !
असातावेदणिज्जस्स जाव अट्ठविधे अणुभावे पनत्ते ।। ४. देखिए पुण्य पदार्थ (ढाल २) टि० १३-१४, १६ (पृ० २२०-२२२, २२४)